Saturday 5 November 2016

आईये मंगलमय प्रारब्ध का निर्माण करें

मनुष्य के कर्मो के अनुसार ही उसके प्रारब्ध का निमार्ण होता है, जिसे भुगतना ही पड़ता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने स्पष्ट कहा है, अनेको जन्मों के संचित कर्मो का परिणाम भुगतान ही पड़ता है। हम यह जानते है कि इस जन्म में जो कष्टकारी परिणाम मिल रहे  है वह हमारे द्वारा अनेकों जन्मों के कर्मो का संचित परिणाम ही तो है, न ही हमे वह योग्यता है कि अपने पिछले जन्मों के इतिहास को जान सके तथा उसमे सुधार कर सके
अब आते है जो हमारे जीवन के कष्टकारी दिन चल रहे है उन्हे कैसे सुधारा जाए़ हमारे पुरातन आचार्यो ने इसका निदान ढूढ़ निकाला था कि कैसे पुरातन प्रारब्ध को बदला जाए। वह था तंत्र विज्ञान ! तन्त्रं का मूल उद्देश्य है- आत्म साक्षत्कार व त्रय तापो से मुक्ति । आत्म साक्षात्कार के लिए मंत्रो द्वारा ही सबसे सरल व समर्थ मार्ग पाया गया है, जिससे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया स्वतः हो जाती है। तंत्र वस्तुतः एक साधना पद्वति है,तंत्र की व्यापक दृष्टि सर्वोपरि है, इसी कारण यह अन्य सभी धर्मो से विशिष्ट भी है। यह उम्र, वर्ग, जाति, स्थान, लिंग आदि का भेद नही करता। स्त्रियाँ भी उच्च कोटि की साधिकाए हुई है जैसे लोपामुद्रा, लोना चमारिन आदि, चुकि मनुष्य की प्रवृतियाँ भिन्न-भिन्न होती है अतः कुछ आचार यानी नियम भी बनाए गए है। तंत्र में सात आचार प्रमुख है -
वेदाचार, वैष्णवाचार , शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्वान्ताचार और कौलाचार ।
तंत्र विज्ञान में आने से पूर्व अपने धरातल को मजबूत कर ले, अपने ज्ञान को बढ़ाए, अधूरा ज्ञान कभी-कभी इस क्षेत्र में जानलेवा भी हो जाता है अतः क्रमशः धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे, शीघ्र सिद्वी प्राप्त करने की छटपटाहट का त्याग कर दे। छटपटाहट सफलता प्राप्त होने से रूकावट बनती है। तन्त्रोक्त साधना में अत्यन्त कठोर अनुशासन का विधान होता है, इसमें साधक की वास्तविक परीक्षा होती है। कहा गया है-जहाँ मद्य, मांस एवं मदारूण-लोचना तरूणियो का जमघट हो, वहाँ चित को एकाग्र एवं शान्त (अविकृत) रख सकना कठिन होता है। विकारोत्यादक एवं मोहक सामग्री के मध्य में स्थिर रह कर जिसका चित विचलित न हो, वही साधक देवी का सच्चा भक्त हो सकता है। इस प्रकार संयत चित साधक ही तन्त्रोक्त  साधना का अधिकारी होता है। किसी भी महाविद्या का श्रेष्ठ उपासक आवागमन के चक्र को अवरूद्व कर देने में सक्षम होता है क्योकि महाविद्याओ का ध्येय परमार्थं की प्राप्ति है, जो कि जीव का परम लक्ष्य है।
माँ पीताम्बरा के गायत्री मंत्र का दस लाख जप आप के पुरातन प्रारब्ध के ठीक करने के लिए पर्याप्त है।

संकल्प होगा-मम पुरातन परम अनिष्ठ बन्धन क्षयार्थे च नव मंगलमय प्रराब्ध निर्माणार्थे भगवती बगला गायत्री मंत्र- - - लाख जपे अहम् कुर्वे।

लगातार जप से आप की अर्थवा में परिवर्तन होने लगेगा और यही हमारा लक्ष्य है। अर्थवा में रंग परिवर्तन को भली भाति समझ ले तो आगे आप के जप में आसानी होगी। अर्थवा-प्रत्येक प्राणी के चारों ओर होता है जिसे अर्थवा (ओरा) कहते है, जिसे हम प्रयत्न कर बदल सकते है, प्रत्येक पदार्थ में अर्थवा होता है, यदि हम जड़ पदार्थ के अर्थवा के रंग द्वारा चैतन्य ‘अर्थवा‘ का रंग परिवर्तन करते है तो वह रंग अपने साथ जड़त्व को भी लायेगा अतः अत्याधिक रंग का उपयोग मानसिक जड़त्व लाएगा, जिससे मानसिक विकृतियाँ पैदा होगी अतः केवल जप समय ही इस जड़ पदार्थ के अर्थवा का प्रयोग मात्र सहायक के रूप में प्रयोग करते है जैसे मंत्र  जप की सूक्ष्म चैतन्य क्रिया की सफलता हेतु बाहरी वातावरण भी उसी रंग का रखते है जो हमारे ध्येय ‘अर्थवा‘ के अनुकूल हो।
वर्ण परिवर्तन के लिए आवश्यक है-
 1. ध्यान
 2. वाक्
 3. वातावरण।

1- ध्यान-  ध्यान का अर्थ है कल्पना नेत्रो से देखना, जिस भी वस्तु या आकार का हम ध्यान करते है उसे अपने कल्पना नेत्रों के द्वारा देखते है वास्तव में वह आकार मूल वस्तु का सू़क्ष्म रूप ही होता है। वस्तु का ’’अर्थवा’’ जिसे अग्रेजी में ’’ओरा’’ कहते है, जो प्रत्येक वस्तु के चारों ओर होता है जो वास्तव में उस वस्तु का सूक्ष्म शरीर होता है दूसरे शब्दों में हम ध्यान में जिस पदार्थ का ध्यान कर रहे है, उसके अर्थवा अर्थात उसके सूक्ष्म शरीर से, अपने सूक्ष्म (कल्पना,मस्तिष्क) का सम्बन्ध स्थापित करते है। अनन्य चिन्तन की अवस्था प्राप्त होते ही, हमारा ’’अर्थवा’’तद् रूप धारण कर लेता है। हमारे पुरातन आचार्य यह भली-भाँति जानते थे, ध्यान द्वारा जन साधारण पूर्ण तन्मयता नही प्राप्त कर सकते न ही अर्थवा में परिवर्तन कर सकते  अतः उन्होंने ध्यान के साथ वाणी (मंत्रो) का प्रयोग भी किया ।

2- वाक्- वाक् के द्वारा विशिष्ट मंत्रों की आवतियों के द्वारा ध्येय मूर्ति प्रत्यक्ष होती है। इसमें आवश्यक है ध्येय आकृति (अर्थवा) के अनुरूप ही ध्वनि तरंगो का उत्पादन किया जाय। ध्यान कुछ और मंत्र कुछ तो परिणाम शून्य ही रहता है। इसी लिए बार-बार कहते है मन को एकाग्र कर ध्यान पूर्वक जप करे। देखने में आता है जप कर रहे है और मन दुनियाँदारी के कार्यो की ओर सोचता रहता है तो सफलता कैसे मिलेगी। कहा गया है -

माला फेरत युग गया, गया न मन का फेर।
करका मनका डाल दे, मनका मन का फेर।।

जप संख्या पूर्ण हो जाती है, परन्तु कोई परिणाम सामने नही आता, तब मंत्रों को दोष देते है, ऐसा कदापि न करे। मन को एकाग्र कर ध्येय आकृति को अपने कल्पना नेत्रों से लगातार देखते हुए अनवरत मंत्र का जप करते रहे, जब आप के रोम-रोम से इष्ट मंत्र के जप का अनुभव होने लगे अर्थात् श्वासोच्छवास के साथ स्वमेव जप होने लगे, तब समझ ले- अब आप सफलता के निकट आ गए है। मंत्र जप की तीन दशाए होती है-
1. वाचिक,   2. उपांशु  3. मानसिक जप

वाचिक जप- जो वाणी द्वारा जप होता है। दीर्घकाल तक वाणी द्वारा जप करने से वह स्वभावतः उपांशु दशा को प्राप्त होता है।

उपांशु जप -इसमें केवल वागिन्द्रिय के कम्पन के साथ जप सम्पन्न होता है अर्थात् ध्वनि रहित जप।

मानसिक जप - दीर्घ काल तक उपांशु जप के फलस्वरूप स्वतः मानसिक जप होने लगता है। तब जिहवा कण्ठादि का कम्पन समाप्त हो जाता है जप बराबर चला करता है। इस समय मंत्र श्वासोच्छवास के साथ मिल जाता है और अन्तिम मंत्र की चमर सिद्धी में साधक मंत्र-मय देह वाला हो जाता है, यह अजपा की दशा वाणी की सूक्ष्म दशा है। अपनी सूक्ष्मता की शक्ति से ‘अर्थवा’ को परिवर्तित करने में पूर्ण सूक्ष्म होती है। ध्येय मूर्ति (अर्थवा) का वाक् रूप-मंत्र है उसी मंत्र की सिद्धी (अजपा-दशा) हमारे ‘‘अर्थवा’’ को परिवर्तित कर तद्रूप करने में सक्षम होगी। अतः ध्येय (अर्थवा) व वाक्-रुप मंत्र भिन्न न होने पाए। ‘अर्थवा वर्ण परिवर्तन’ और कुण्डलिनी जागरण दो अलग-अलग कार्य नहीं है। केवल शब्दों का फेर मात्र है। महाशक्ति कुण्डलिनी के प्रकाश का दूसरा नाम ही अर्थवा हैं वही माहा माया कुण्डलिनी जब अपनी पीताभा का प्रसार करती है तो सिद्ध-पीताम्बरा के नाम से अभिहित होती है।
अब बाकी शेष ही क्या रह जाता है। आप का प्रारब्ध स्वतः ही मंगलमय जीवन की ओर आपको ले जाएगा, जीवन कष्ट रहित हो जाता है, सारे शत्रुओं का उन्मूलन स्वमेव हो जाता है, माँ से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, यहाँ तक आप का बुरा सोचने वालों को इस दुनिया से जाना ही पड़ जाता है। एक बार प्रयास के बाद यदि मानसिक जप ठीक से नहीं चल पा रहा हो तो माँ से कातर प्रार्थना करो की वह आप के मानसिक जप को उचित ढंग से पूर्ण कराए, सदैव ध्यान रहे कि इस पुकार से पराम्बा शीघ्रतिशीघ्र द्रवित होती है, और आपका मानसिक जप स्वतः तीव्र गति से चलने लगेगा। हिम्मत न हारे, आगे बढ़े, सफलता तो आपको मिल कर रहेगी, नए प्रारब्ध का निर्माण होकर रहेगा, सदैव आशावान बने रहें, आप अकेले नहीं हो, हमारी भी शक्तियाँ आपके साथ है व स्वयं माँ भी तो आपके साथ हैं, थोड़ा परिश्रम कर लो, जीवन ही बदल जाएगा। मनुष्य जन्म लेने का उद्देश्य भी सफल हो जाएगा। इस आवागमन का चक्र भी अवरूद्ध हो जाएगा। कितना सीधा व सरल मार्ग है। बढ़ते रहो-बढ़ते रहो और आगे बढ़ते रहो, आपको मंजिल मिल कर रहेगी। सदैव ध्यान रहे आप का परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाएगा - यह मेरा वादा रहा।



नोट :- यह लेख केवल उनके लिए, जो परिश्रम करना चाहते हैं।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

1 comment :

  1. Main bahut pareshan rehta hun bahut tanav hai jindgi me par abhi guruji se bat hui hai unhone mje bhrosa dilaya hai sb thk ho jayega bs unka bharosa mjme nai umag lekr aya hai main haar chuka tha pr unhone mujhe khada kiga hai or maa bagla aashivad bhi diya hai

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