Sunday 25 December 2016

भगवती पीताम्बरा के मंत्रों का प्रयोग

यह तो तय है मंत्रों में बहुत ही गजब की शक्ति समाई रहती है। उसका उचित ढंग से व आवश्यक रीति से जप किया जाये तो सुखद परिणाम प्राप्त होते हैं। सर्व प्रथम भवगती बगलामुखी के मूल मंत्र के 36 लाख जप आप पूर्ण कर चुके हैं। (योग्य गुरू के निर्देशानुसार एक वर्ष में ही आप 36 लाख जप पूर्ण कर लेंगे, जो भी हो, यह बात तो अनुभवी गुरूओं के आधीन है) तो कोई कारण नहीं कि आपको सफलता न मिले। कुछ गुप्त तथ्य आप के सम्मुख प्रस्तुत हैं:-

1. किसी कार्य के संकल्प हेतु पीली चुनरी व नारियल चढ़ा कर कार्य प्रारम्भ करें
2. गंगा के किनारे या कोई भी प्राचीन शिवाला या देवी का प्राचीन मंदिर हो वहाँ जप से शीघ्र ही सफलता मिल जाती है।
3. साधक लगातार जप से निपुण होता है।
4. अच्छे कार्यों से मंत्रों की शक्ति बढ़ती है।
5. किसी का भी हवन कर रहे हो तो हवन सामग्री में कुछ अंश अपना भी लगा दें।
6. जब भी प्रयोग करते है, 20 दिन बाद हवन करते रहे, यदि हवन होता रहता है तो शीघ्र सुखद परिणाम प्राप्त होता है।
7. कभी भी साधना को अधर में न छोड़े, परिणाम प्राप्त होने पर भी संकल्प पूर्ण करें।
8. जब कोई काम न बने तब ब्रम्हास्त्र बगला कवच ही फल जाता है। जब कोई शक्तिशाली चीज प्रहार करती है, तब यही कवच रक्षा करता है। पहले कवच का ग्यारह सौ पाठ कर सिद्ध कर लें। मरीज का हाथ छूते ही झुनझुनी सी मालूम होती है, समझ ले इस पर ऊपरी कोई बाधा है, अतः बगला गायत्री मंत्र मात्र सात बार पढ़ कर जल अभिमंत्रित कर, मरीज पर छीटा मारे, मरीज में आग सी लगती है वह चीखता है, चिल्लाता है। अब आगे जैसा आप चाहेंगे वैसा ही होगा।






ब्रम्हास्त्र बगला कवच


नोट:- पाठ से पूर्व बगला मूल मंत्र का 11 माला व बगला गायत्री का एक माला जप कर लें।

बगला में शिरः पातु ललाटं ब्रह्म संस्तुता।
बगला में भ्रवो नित्यं कर्णयोः क्लेश हारिणी।।
त्रिनेत्रा चक्षुषी पातु स्तम्भनी गण्डयो स्तथा।
मोहिनी नासिंका पातु, श्री देवी बगलामुखी।
ओष्ठयो र्दुर्घरा पातु स्र्वदन्तेषु चच्चला।
सिद्धान्न पूर्णा जिह्वायां जिह्वागे्र शारदाम्बिका।।
अकल्मषा मुखे पातु चिबुके बगलामुखी।
घीरा में कण्ठदेशे तु कण्ठाग्रे काल कर्षिणी।
शुद्ध स्वर्ण निभा पातु कण्ठ मध्ये तथाऽम्बिका।
कण्ठ मूले महाभोगा स्कन्धौ शत्रु विनासिनी।
भुजौ में पातु सततं बगला सुस्मिता परा।
बगला में सदा पातु कूर्परे कमलोभ्दवा।।
बगलाऽम्बा प्रकोष्ठौ तु मणि बन्धे महाबला।
बगला श्री र्हस्तयोश्च कुरू कुल्ला कराङगुलिम।।
नखेषु वज्रहस्ता च हृदये ब्रह्म वादिनी।
स्तनौ मे मन्द गमना कुक्षयो र्योगिनी तथा।।
उदरं बगला माता नाभिं ब्रह्मास्त्र देवता।
पुष्टिं मुदगर् हस्ता च पातुनो देव वंन्दिता।।
पाश्र्वयो र्हनुमद् वन्द्या प्शु पाश विमोचिनी।
करौ राम प्रिया पातु उरू युग्मं महेश्वरी।।
भगमाला तु, गह्मं में लिङग कामेश्वरी तथा।
लिंग मूले महाक्लिन्ना वृषणो पातु दूतिका।।
बगला जानुनी पातु जानुयुग्मं च नित्यशः।
जङघे पातु, जगद्धात्री गुल्फौ रावण पूजिता।।
चरणौ दुर्जया पातु पीताम्बा चरणाङ्गुली।
पाद पृष्ठं पद्यहस्ता पादाघ चक्र धारिणी।।
सर्वाङग बगला देवी पातु, श्री बगलामुखी।
वाराही मे पूर्वतः पातु, माहेशी बहिन भागतः।।
कौमारी दक्षिणो पातु, वैष्णवी स्वर्ग मार्गतः।
ऊघ्र्व पाशघरा पातु, शत्रु जिह्वा घरा ह्यघः।।
रणे राजकुले वादे महायोगे महाभये।
बगला भैरवी पातु नित्यं क्लींकार रूपिणी।।
इत्येवं वज्र कवचं महा ब्रह्मास्त्र संज्ञकम्।
त्रिसन्हयं यः पठेत् घीमान् सर्वैश्वर्य वाष्रुयात्।।
(दक्षिणामूर्ति संहिता उद्घृत)

क्रमशः

1. दक्षिण काली और भैरव का विधान किस प्रकार समाप्त करे।
2. जिन्न को कैसे नष्ट किया जाए।
3. गडन्त को कैसे नष्ट किया जाए।
4. कृत्या को कैसे समाप्त करें।
5. दुष्ट ब्रह्मराक्षस पर भगवती पीताम्बरा के मंत्रों का चमत्कार।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Saturday 5 November 2016

आईये मंगलमय प्रारब्ध का निर्माण करें

मनुष्य के कर्मो के अनुसार ही उसके प्रारब्ध का निमार्ण होता है, जिसे भुगतना ही पड़ता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने स्पष्ट कहा है, अनेको जन्मों के संचित कर्मो का परिणाम भुगतान ही पड़ता है। हम यह जानते है कि इस जन्म में जो कष्टकारी परिणाम मिल रहे  है वह हमारे द्वारा अनेकों जन्मों के कर्मो का संचित परिणाम ही तो है, न ही हमे वह योग्यता है कि अपने पिछले जन्मों के इतिहास को जान सके तथा उसमे सुधार कर सके
अब आते है जो हमारे जीवन के कष्टकारी दिन चल रहे है उन्हे कैसे सुधारा जाए़ हमारे पुरातन आचार्यो ने इसका निदान ढूढ़ निकाला था कि कैसे पुरातन प्रारब्ध को बदला जाए। वह था तंत्र विज्ञान ! तन्त्रं का मूल उद्देश्य है- आत्म साक्षत्कार व त्रय तापो से मुक्ति । आत्म साक्षात्कार के लिए मंत्रो द्वारा ही सबसे सरल व समर्थ मार्ग पाया गया है, जिससे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया स्वतः हो जाती है। तंत्र वस्तुतः एक साधना पद्वति है,तंत्र की व्यापक दृष्टि सर्वोपरि है, इसी कारण यह अन्य सभी धर्मो से विशिष्ट भी है। यह उम्र, वर्ग, जाति, स्थान, लिंग आदि का भेद नही करता। स्त्रियाँ भी उच्च कोटि की साधिकाए हुई है जैसे लोपामुद्रा, लोना चमारिन आदि, चुकि मनुष्य की प्रवृतियाँ भिन्न-भिन्न होती है अतः कुछ आचार यानी नियम भी बनाए गए है। तंत्र में सात आचार प्रमुख है -
वेदाचार, वैष्णवाचार , शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्वान्ताचार और कौलाचार ।
तंत्र विज्ञान में आने से पूर्व अपने धरातल को मजबूत कर ले, अपने ज्ञान को बढ़ाए, अधूरा ज्ञान कभी-कभी इस क्षेत्र में जानलेवा भी हो जाता है अतः क्रमशः धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे, शीघ्र सिद्वी प्राप्त करने की छटपटाहट का त्याग कर दे। छटपटाहट सफलता प्राप्त होने से रूकावट बनती है। तन्त्रोक्त साधना में अत्यन्त कठोर अनुशासन का विधान होता है, इसमें साधक की वास्तविक परीक्षा होती है। कहा गया है-जहाँ मद्य, मांस एवं मदारूण-लोचना तरूणियो का जमघट हो, वहाँ चित को एकाग्र एवं शान्त (अविकृत) रख सकना कठिन होता है। विकारोत्यादक एवं मोहक सामग्री के मध्य में स्थिर रह कर जिसका चित विचलित न हो, वही साधक देवी का सच्चा भक्त हो सकता है। इस प्रकार संयत चित साधक ही तन्त्रोक्त  साधना का अधिकारी होता है। किसी भी महाविद्या का श्रेष्ठ उपासक आवागमन के चक्र को अवरूद्व कर देने में सक्षम होता है क्योकि महाविद्याओ का ध्येय परमार्थं की प्राप्ति है, जो कि जीव का परम लक्ष्य है।
माँ पीताम्बरा के गायत्री मंत्र का दस लाख जप आप के पुरातन प्रारब्ध के ठीक करने के लिए पर्याप्त है।

संकल्प होगा-मम पुरातन परम अनिष्ठ बन्धन क्षयार्थे च नव मंगलमय प्रराब्ध निर्माणार्थे भगवती बगला गायत्री मंत्र- - - लाख जपे अहम् कुर्वे।

लगातार जप से आप की अर्थवा में परिवर्तन होने लगेगा और यही हमारा लक्ष्य है। अर्थवा में रंग परिवर्तन को भली भाति समझ ले तो आगे आप के जप में आसानी होगी। अर्थवा-प्रत्येक प्राणी के चारों ओर होता है जिसे अर्थवा (ओरा) कहते है, जिसे हम प्रयत्न कर बदल सकते है, प्रत्येक पदार्थ में अर्थवा होता है, यदि हम जड़ पदार्थ के अर्थवा के रंग द्वारा चैतन्य ‘अर्थवा‘ का रंग परिवर्तन करते है तो वह रंग अपने साथ जड़त्व को भी लायेगा अतः अत्याधिक रंग का उपयोग मानसिक जड़त्व लाएगा, जिससे मानसिक विकृतियाँ पैदा होगी अतः केवल जप समय ही इस जड़ पदार्थ के अर्थवा का प्रयोग मात्र सहायक के रूप में प्रयोग करते है जैसे मंत्र  जप की सूक्ष्म चैतन्य क्रिया की सफलता हेतु बाहरी वातावरण भी उसी रंग का रखते है जो हमारे ध्येय ‘अर्थवा‘ के अनुकूल हो।
वर्ण परिवर्तन के लिए आवश्यक है-
 1. ध्यान
 2. वाक्
 3. वातावरण।

1- ध्यान-  ध्यान का अर्थ है कल्पना नेत्रो से देखना, जिस भी वस्तु या आकार का हम ध्यान करते है उसे अपने कल्पना नेत्रों के द्वारा देखते है वास्तव में वह आकार मूल वस्तु का सू़क्ष्म रूप ही होता है। वस्तु का ’’अर्थवा’’ जिसे अग्रेजी में ’’ओरा’’ कहते है, जो प्रत्येक वस्तु के चारों ओर होता है जो वास्तव में उस वस्तु का सूक्ष्म शरीर होता है दूसरे शब्दों में हम ध्यान में जिस पदार्थ का ध्यान कर रहे है, उसके अर्थवा अर्थात उसके सूक्ष्म शरीर से, अपने सूक्ष्म (कल्पना,मस्तिष्क) का सम्बन्ध स्थापित करते है। अनन्य चिन्तन की अवस्था प्राप्त होते ही, हमारा ’’अर्थवा’’तद् रूप धारण कर लेता है। हमारे पुरातन आचार्य यह भली-भाँति जानते थे, ध्यान द्वारा जन साधारण पूर्ण तन्मयता नही प्राप्त कर सकते न ही अर्थवा में परिवर्तन कर सकते  अतः उन्होंने ध्यान के साथ वाणी (मंत्रो) का प्रयोग भी किया ।

2- वाक्- वाक् के द्वारा विशिष्ट मंत्रों की आवतियों के द्वारा ध्येय मूर्ति प्रत्यक्ष होती है। इसमें आवश्यक है ध्येय आकृति (अर्थवा) के अनुरूप ही ध्वनि तरंगो का उत्पादन किया जाय। ध्यान कुछ और मंत्र कुछ तो परिणाम शून्य ही रहता है। इसी लिए बार-बार कहते है मन को एकाग्र कर ध्यान पूर्वक जप करे। देखने में आता है जप कर रहे है और मन दुनियाँदारी के कार्यो की ओर सोचता रहता है तो सफलता कैसे मिलेगी। कहा गया है -

माला फेरत युग गया, गया न मन का फेर।
करका मनका डाल दे, मनका मन का फेर।।

जप संख्या पूर्ण हो जाती है, परन्तु कोई परिणाम सामने नही आता, तब मंत्रों को दोष देते है, ऐसा कदापि न करे। मन को एकाग्र कर ध्येय आकृति को अपने कल्पना नेत्रों से लगातार देखते हुए अनवरत मंत्र का जप करते रहे, जब आप के रोम-रोम से इष्ट मंत्र के जप का अनुभव होने लगे अर्थात् श्वासोच्छवास के साथ स्वमेव जप होने लगे, तब समझ ले- अब आप सफलता के निकट आ गए है। मंत्र जप की तीन दशाए होती है-
1. वाचिक,   2. उपांशु  3. मानसिक जप

वाचिक जप- जो वाणी द्वारा जप होता है। दीर्घकाल तक वाणी द्वारा जप करने से वह स्वभावतः उपांशु दशा को प्राप्त होता है।

उपांशु जप -इसमें केवल वागिन्द्रिय के कम्पन के साथ जप सम्पन्न होता है अर्थात् ध्वनि रहित जप।

मानसिक जप - दीर्घ काल तक उपांशु जप के फलस्वरूप स्वतः मानसिक जप होने लगता है। तब जिहवा कण्ठादि का कम्पन समाप्त हो जाता है जप बराबर चला करता है। इस समय मंत्र श्वासोच्छवास के साथ मिल जाता है और अन्तिम मंत्र की चमर सिद्धी में साधक मंत्र-मय देह वाला हो जाता है, यह अजपा की दशा वाणी की सूक्ष्म दशा है। अपनी सूक्ष्मता की शक्ति से ‘अर्थवा’ को परिवर्तित करने में पूर्ण सूक्ष्म होती है। ध्येय मूर्ति (अर्थवा) का वाक् रूप-मंत्र है उसी मंत्र की सिद्धी (अजपा-दशा) हमारे ‘‘अर्थवा’’ को परिवर्तित कर तद्रूप करने में सक्षम होगी। अतः ध्येय (अर्थवा) व वाक्-रुप मंत्र भिन्न न होने पाए। ‘अर्थवा वर्ण परिवर्तन’ और कुण्डलिनी जागरण दो अलग-अलग कार्य नहीं है। केवल शब्दों का फेर मात्र है। महाशक्ति कुण्डलिनी के प्रकाश का दूसरा नाम ही अर्थवा हैं वही माहा माया कुण्डलिनी जब अपनी पीताभा का प्रसार करती है तो सिद्ध-पीताम्बरा के नाम से अभिहित होती है।
अब बाकी शेष ही क्या रह जाता है। आप का प्रारब्ध स्वतः ही मंगलमय जीवन की ओर आपको ले जाएगा, जीवन कष्ट रहित हो जाता है, सारे शत्रुओं का उन्मूलन स्वमेव हो जाता है, माँ से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, यहाँ तक आप का बुरा सोचने वालों को इस दुनिया से जाना ही पड़ जाता है। एक बार प्रयास के बाद यदि मानसिक जप ठीक से नहीं चल पा रहा हो तो माँ से कातर प्रार्थना करो की वह आप के मानसिक जप को उचित ढंग से पूर्ण कराए, सदैव ध्यान रहे कि इस पुकार से पराम्बा शीघ्रतिशीघ्र द्रवित होती है, और आपका मानसिक जप स्वतः तीव्र गति से चलने लगेगा। हिम्मत न हारे, आगे बढ़े, सफलता तो आपको मिल कर रहेगी, नए प्रारब्ध का निर्माण होकर रहेगा, सदैव आशावान बने रहें, आप अकेले नहीं हो, हमारी भी शक्तियाँ आपके साथ है व स्वयं माँ भी तो आपके साथ हैं, थोड़ा परिश्रम कर लो, जीवन ही बदल जाएगा। मनुष्य जन्म लेने का उद्देश्य भी सफल हो जाएगा। इस आवागमन का चक्र भी अवरूद्ध हो जाएगा। कितना सीधा व सरल मार्ग है। बढ़ते रहो-बढ़ते रहो और आगे बढ़ते रहो, आपको मंजिल मिल कर रहेगी। सदैव ध्यान रहे आप का परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाएगा - यह मेरा वादा रहा।



नोट :- यह लेख केवल उनके लिए, जो परिश्रम करना चाहते हैं।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह
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Monday 17 October 2016

संतान प्राप्त हेतु - माँ बगलामुखी कृपा


एक महिला जिसकी उम्र 43 वर्ष, लंदन में रहती हैं, कोई संतान नहीं हुई, वह महिला डाक्टर है, परन्तु चिकित्सकों के अनुसार वह माँ नहीं बन सकती। जहाँ विज्ञान समाप्त हो जाता है, वहाँ से अध्यात्म का प्रारम्भ हो जाता है, ऐसा मैने सुना था, अब समय आ गया कि इसका परीक्षण भी कर लिया जाय। यह केस मेरे पास आया। सर्व प्रथम उस महिला के प्रारब्ध को ठीक करना था, तभी सफलता मिल सकती है, बुरे प्रारब्ध को ठीक करने की क्षमता भगवती पीताम्बरा के पास है यह मुझे भली-भांति ज्ञात है अतः बगला गायत्री का एक लाख जप का संकल्प लिया। बिना गायत्री संध्या के शिवा स्वरूपा भगवती पीताम्बरा बगला श्रेष्ठफल प्रदान नहीं करती। एक लाख जप पूर्ण करने के बाद ‘बगला हृदय मंत्र’ द्वारा यजमानस्या को संतान प्रप्ति हेतु प्रार्थना की गई। संख्यान तंत्र में स्पष्ट दिया है बन्ध्या पुत्रवती चैव, षण्मानसादि भवित घ्रुवम

परिणाम:- अति सुन्दर आया, मेरी यजमानस्या गर्भवती हुई, कुछ समयोपरान्त उसने जुड़ुवा पुत्रों को जन्म दिया। है न माँ की महिमा, मैं माँ का आभार मानते हुए उन्हें कोटिश-कोटि प्रणाम करता हूँ।
क्रिया जिस प्रकार की गई आप के समक्ष
श्री बगला गायत्री मंत्र विधि विधान के साथ प्रस्तुत है:-

मंत्र:- ‘‘ऊँ ह्लीं ब्रह्महस्त्राय विद्यहे स्तम्भन-वाणाय धीमहि तन्नः बगला प्रचोदयात्। (27 अक्षरी)

संकल्प:- ऊँ तत्सद्य परमात्मन ..... मम यजमानस्या पुरातन अनिष्ट प्रारब्ध नष्टार्थे च नव मंगलमय प्रारब्ध निर्माणार्थे श्री बगला गायत्री मंत्र एक लक्ष जपे अहं कुर्वे।

विनियोगः - ऊँ अस्य श्री बगला गायत्री मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्दः ब्रह्मास्त्र- बगला देवता, ऊँ बीजं, ह्लीं शक्तिः, विद्यहे कीलकं, श्री ब्रह्मास्त्र बगलाम्बा प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास:- 
श्री ब्रह्मार्षये नमः शिरसि, 
गायत्री छन्दसे नमः मुखे, 
श्री ब्रह्मास्त्र बगलाम्बा-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमःअंजलौ । 

कर न्यास:- 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्यहे अनुष्ठाभ्यां नमः, 
स्तम्भन वाणाय धीमहि तर्जनीभ्यां स्वाहा, 
तन्नो बगलाप्रचोदयात् मध्यमाभ्यां वषट्, 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्यहे अनामिकाभ्यां हुं, 
स्तम्भन वाणाय धीमहि कनिष्ठाभ्यां वौषट्, 
तन्नो बगला प्रचोदयात् कर तल-कर पृष्ठाभ्यां फट्।

अङग न्यास:- 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्ताय विद्यहे हृदयाय नमः, 
स्तम्भन वाणाय धीमहि शिरसे स्वाहा, 
तन्नों बगला प्रचोदयात्, शिखायै वषट्, 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्ताय विद्यहे कवचाय हुं, 
स्तम्भन-वाणाय धीमहि नेत्र-त्रयाय वौषट्, 
तन्नो बगला प्रचोदयात अस्त्राय फट्।

ध्यान:- 


(प्रातः)

गम्भीरां च मदोन्मत्तां, स्वर्ण-कान्ति-सम-प्रभाम्।
चतुर्थजां त्रि-नयनां, कम लासन-संस्थिताम्।।
मुद्गर दंक्षिणें पाशं, वामे जिह्वां च विभ्रतीम।
पीताम्बर-धरां सौम्यां, दृढ़-पीन-पयोधराम्।।
हेम-कुण्डल-भूषाङगी, पीत-चन्द्रार्द्ध-शेखराम्।
पीत-भूषण-भूषाङगी, स्वर्ण-सिहासने स्थिताम्।।

(दोपहर) 

दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम्,
भूभृत्-सन्दमनं चलन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृश कारुण्य-पूर्वेक्षणम्,
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयंमातस्त्वदीयं वपुः 

(सायं)

मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय,
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि ! तीक्ष्ण-गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।

अब उपरोक्त 27 अक्षरी मंत्र का एक लाख जप करने के उपरान्त बगला हृदय मंत्र का एक लाख जप संकल्प कर किया गया।

श्री बगला हृदय मंत्र (80 अक्षरी) - सांख्यायन तन्त्र से लिया गया है।

|| आं ह्लीं क्रों ग्लौं हूं ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं वगलामुखि आवेशय आवेशय आं ह्लीं क्रों ब्रह्मास्त्ररुपिणि एहि एहि आं ह्लीं क्रों मम हृदये आवाहय आवाहय सान्निध्यं कुरु कुरु आं ह्लीं क्रों ममैव हृदये चिरं तिष्ठ तिष्ठ आं ह्लीं क्रों हुं फट् स्वाहा ||

नोट: यह मंत्र बड़ा ही चमत्कारिक है। इसे सिद्ध कर, मात्र 3 बार अभिमंत्रित जल को पिलाने से रोगी रोग मुक्त हो जाता है।



डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह
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Monday 5 September 2016

माँ बगलामुखि मूल मंत्र द्वारा सम्पुटित माता धूमावती साधना की तीव्रता

मैं बड़ा परेशान रहता था, जमीन तो थी परन्तु पैसा नहीं था कि मकान बनवा सकू, कभी सोचता एक कमरा ही बन जाए परन्तु सोचने से कुछ नहीं होता। कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। लोग मेरी जमीन हड़पने का प्रयास भी करने लगे। कोई कहता यहाँ मकान बन ही नहीं सकता, कोर्ट से स्टे ले लूंगा, कोई कहता यहाँ पर नीम का पेड़ है जैसे ही कटेगा अन्दर करवा दूंगा, पैसा भी मेरे पास नहीं कैसे सबका सामना करूगा। मेरे प्लाट के मध्य में एक नीम का पेड़ लगा था। एक दिन उस पेड़ के नीचे खड़े होकर उससे उपरोक्त बाते करने लगा, उसने सुना या नहीं, यह तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु दूसरे ही दिन पेड़ की सारी पत्तियाँ गिरने लगी, मानो पतझड़ आ गया, अब वहाँ वृक्ष की मोटी-मोटी शाखाएं ही शेष रह गई। सोचने लगा कुछ तो है, पेड़ यो ही नहीं सूख गया, मन की स्थित शान्त नहीं थी, एक हफ्ते बाद मन में दृढ़ विश्वास किया कि अब हमें माता बगलामुखि के मूल मंत्र द्वारा सम्पुटित माता घूमावती मूल मंत्र का अनुष्ठान करना है, अतः एक लाख जप का संकल्प कर, जप प्रारम्भ कर निर्विघ्न पहला अनुष्ठान पूर्ण किया पुनः दूसरा एक लाख जप का अनुष्ठान करने से पूर्व एक बार घूवती गायत्री का अनुष्ठान कर लें, अतः घूमावती गायत्री का एक लाख जप का संकल्प कर जप समाप्त किया, तभी ज्ञात हुआ घूमावती जप 80 हजार पर एक सर्किल होता है अतः मैने साठ हजार जप और कर थकावट महसूस कर रहा था, तभी एक सज्जन मेरे पीछे पड़ गये कि मकान मैं बनवा दूंगा, कितना पैसा तुम्हारे पास है। मैने कहा मात्र एक लाख ही मेरे पास है - कहा बहुत है। दूसरे ही दिन मकान की नींव खुदने लगी। मैं चिन्तित था जग हँसाई होगी। एक लाख में तो एक कायदे का कमरा भी नहीं बन सकता, कार्य होता रहा। दवाखाने में प्रतिदिन कभी 4 हजार कभी 5 हजार मिलता रहा, अन्ततः तीन माह में तीन बड़े कमरे, किचन, बाथरूम, लैट्रीन, जीना व पूजाघर सभी बन गया। मैं बड़ा अचम्भित था, यह सब हो कैसे गया और आज तक भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा, यह सब कैसे हो गया। किसी भी विरोधी ने कोई विरोध करना तो दूर रहा, वहाँ आया तक नहीं। माँ की अजब कृपा हुई मैं भाव विभोर हूँ। आप को भी माँ की कृपा प्राप्त हो अतः जैसे मैने क्रिया की आप के सामने रख रहा हूँ, कृपया योग्य गुरू के मार्ग दर्शन से आगे बढ़े।
मन्त्र जप समय ध्यान बहुत महत्वपूर्ण होता है, बिना ध्यान में मंत्र जप निष्फल हो जाता है। मात्रा घूमावती का ध्यान है-कौवे की ध्वजा वाले रथ पर बैठी है, विधवाओं जैसे वेश है। खुले रूखे बाल है, बूढ़ी औरतों की तरह लटके स्तन है, दाएं हाथ में खाली सूप है व बाया हाथ वरद मुद्रा में उठा हुआ है। कल्पना करें - हमारे दुःख, दरिद्रता-कलह-क्लेश व बुरे प्रारब्ध को अपने साथ ले जा रही है और जाते समय अपने वरद हस्त से हमें आशीर्वाद दे रही है।
आवाह्न - कौवे के पंख पर सिन्दुर में घी लगा कर त्रिशुल की आकृति बनाकर, उसी पर इनका आवाह्न करते हैं जप के अन्त में जय माँ के बाए हाथ में समर्पित कर विसर्जन कर दें।
विसर्जन- हे माता पुनः आगमन हेतु अब आप प्रस्थान करें, जप वाद जब कपूर जलाए तब कपूर बुझने से पूर्व इनका विसर्जन कर देते हैं।
बगला मूलमंत्र संपुटित घूमावती साधना करने के पूर्व मेरे एक परिचित हैं, वह माँ घूमावती के अच्छे साधक है, उनसे विचार विमर्श किया, उन्होंने हमें बतलाया बगला और घूमावती में आपस में शत्रुता है, यदि तुम इनके साथ घूमावती का जप करोगे तो बगला तुरन्त तुम्हारी दुश्मन बन जायेगी। मैने इनकी बात सुन तो ली, परन्तु विरोध नहीं किया। मंथन किया जब बगला कल्प में ‘‘ ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं घूमावती यथेशान्याम्’’ व ‘‘ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं  ह्रः घूमावती देव्यै नमः कटयाम्’’ इन दो स्थानों पर घूमावती को पुकारा गया है, तो इन दोनों में शत्रुता होने का प्रश्न ही नहीं उठता अतः संकल्प लिया -

मम पुरातन अनिष्ठ परम बन्धन विनाशार्थे च भगवति बगलामुखी व भगवती घूमावती प्रसन्नार्थे, भगवती बगलामुखी मूल मंत्र सम्पुटे, भगवती घूमावती मूल मंत्र एक लक्ष जपे अहं कुर्वे

संम्पुटित मंत्र
ऊँ ह्रीं बगलामुखि सर्व दुटानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ऊँ स्वाहा (1 माला)
धूं धूं धूमावती ठः ठः। (1 माला)
ऊँ  ह्रीं बगलामुखि सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा (1 माला)

यह एक मंत्र हुआ इसी का जप किया गया।

मंदिर में हवन

परिणाम - अति उत्तम व विस्मयकारी आया।

धूमावती गायत्री - घूमावत्यै च विद्यहे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो घूमा प्रचोदयात्।

विनियोग - अस्य श्री घूमावती गायत्री मन्त्रस्य श्री घूमावती देवता वर प्रसाद सिद्धी द्वारा मम सर्वमनोभिलाष्टि कार्य सिद्धै जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास -

पिप्पलाद ऋषये नमः शिरसि। 
निवृच्छन्दसे नमः मुखे। 
घूमावती देवतायै नमः हृदि। 

कर न्यास -

धूमावत्यै अनुष्ठाभ्यादि नमः। 
विद्यहे तर्जनीभ्यां नमः। 
संहारिण्यै मध्यमाभ्यां नमः। 
धीमहि अनामिकाभ्यां नमः। 
तन्नो घूमा कनिष्ठिकाभ्यां नमः। 
प्रचोदयात् कर तल कर पृष्ठाभ्यां नमः।

षडंग न्यास -

धूमावत्यै च ह्दयाय नमः। 
विद्यहे शिरसे स्वाहा। 
संहारिण्यै च शिखायै वषट्। 
धीमहि कवचाय हुं। 
तन्नो घूमा नेत्र त्रयाय वौष्ट्। 
प्रचोदयात् अस्त्राय फट्।

नोट - दीर्घ काल तक, निरन्तर प्रतिदिन सत्कार पूर्वक अभ्यास करने से साधना की भूमि दृढ़ होती है और तब कहीं उसका फल होता है। सतर्कता से इन्द्रिय-निग्रह-पूर्वक साधना-पथ पर अग्रसर होते हुए सफलता की प्राप्ति होने तक प्रयत्न पूर्वक रहना पड़ता है। पुरश्चरण पूर्ण होने तथा माँ की कृपा प्राप्त होने पर भी साधक को अपनी साधना की साध्य से जोड़ने वाली परम्परा को कभी शिथिल नहीं होने देना चाहिए-यही ‘‘ऊर्ध्वाम्नाय’’ की उच्च कोटि की साधना का गूढ़ रहस्य है।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Wednesday 24 August 2016

ध्यान



मंत्रो के पूर्व ’’ध्यान‘‘ लिखा रहता है, जिसे साधक एक बार पढ़ कर जप करने लगते है। लिखा भी रहता है ध्यान पूर्वक जप करे। अब प्रशन उठता है कैसे ध्यान पूर्वक जप करे, मूलतः ध्यान संस्कृत भाषा में लिखा रहता है अतः बहुधा साधक उसके अर्थ ही नही समझते फिर ध्यान करने का प्रश्न ही नही उठता।
बिना ध्यान के सिद्ध मंत्र भी गूंगा होता है उसमें मंत्र सिद्ध का कुछ भी प्रकाश नही रहता। ‘‘ध्यान‘‘ के अनुसार चिन्तन करते हुए मंत्र जप करते है। अभ्यास के दृढ़ होने पर ही निखिल पुरुषार्थ की सिद्धि होती है।
भगवती पीताम्बर का प्रमुख्य ध्यान है-

सौ वर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पितांशु कोल्लासिनी,
हेमा भगं रुचिं शशांक मुकुटां  सच्चम्पक स्रगयुताम्।
हस्तै मुद्गर-पाश-वज्र-रसनां संव्रिभ्रतीं भूषणैः,
व्र्याप्तागीं वगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनी चिन्तयेत्।।

इसका भावार्थ है-

सुवर्ण के आसन पर स्थित, तीन नेत्रोवाली, पीताम्बर से उल्लसित सुवर्ण की भांति कान्तिमय अंगांे वाली, जिनके मणि-मय मुकुट में चन्द्र चमक रहा है, कण्ठ में सुन्दर चम्पा पुष्य की माला शोभित है जो अपने चार हाथो में गदा(पाश), व्रज(शत्रु की जीभ) ग्रहण किये है, दिव्य आभूषणो से जिनका सारा शरीर भरा हुआ है,-ऐसी तीनों लोको का स्तम्भन करने वाली श्री वगलामुखी का मै चिन्तन करता हूँ।





ध्यान-

इस संसार में जो कुछ हम देखते है उसे आंख बन्द कर काल्पनिक दृष्टि से सभी देख सकते है जैसे मनुष्य का ध्यान करना है, तब हम मनुष्य आकृति की कल्पना आंख बन्द कर के कर सकते है ध्यानस्थ पदार्थ का रंग क्या है  वस्तुतः वह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले स्थूल रंग का सूक्ष्म रुप ही होता है। जिसे भी आकार को हम ध्यान में कल्पना नेत्रो से देखते है, वह आकार वस्तुतः सूक्ष्म ही होता है। वस्तु का ‘‘अथर्वा‘‘ जिसे अंग्रेजी में ‘‘ओरा‘‘ कहते है, जो प्रत्येक वस्तु के चारो ओर होता है। वास्तव में उस वस्तु का सूक्ष्म शरीर होता है, और ध्यान में हम वस्तु के सूक्ष्म रूप को ही प्रस्तुत करते है।
दूसरे शब्दों में ध्यान में जिस पदार्थ का ध्यान कर रहे है, उसके अर्थवा अर्थात सूक्ष्म शरीर से, अपने सूक्ष्म (कल्पना, मस्तिष्क) का सम्बन्ध स्थापित करते है। अनन्य चिन्तन की अवस्था प्राप्त हेाते है ही हमारा ‘‘अर्थवा‘‘तद् रूप धारण कर लेता है फलतः हम उन सब विशेषताओं से सम्पन्न हो जाते है जो उस ‘‘अर्थवा‘‘ एवं उसके वर्ण से सम्बन्धित है, परन्तु पुरातन ऋषि-मुनि यह जानते थे, यह दुःसाध्य कार्य है, जन साधारण ध्यान के द्वारा पूर्ण तन्मयता नही प्राप्त कर सकते न ही अर्थवा में परिवर्तन कर सकते है अतः उन्होने ध्यान के साथ वाणी (मंत्रो) का प्रयोग भी किया वाक् के द्वारा विशिष्ट मंत्र की आवृतियों के द्वारा ध्येय मूर्ति प्रत्यक्ष होती है। मंत्र जप से ‘‘अर्थवा‘‘ का परिवर्तन हो जाता है, जब शरीर के रोम रोम से इष्ट मंत्र के जप का अनवरत अनुभव होने लगना यानी श्वसोच्छवास के साथ स्वयमेव मन्त्र जप होने लगता है। मंत्र जप की तीन दशाए है। पहली दशा-वाचिक जप है जो वाणी द्वारा जप होता है। वाणी द्वारा दीर्घकाल तक जप करने पर पज स्वभावतः उपशु-दशा को प्राप्त होता है अर्थात् ध्वनि रहित, केवल स्थूल वागिन्द्रिय के कम्पन के साथ जप सम्पन्न होता है रहता है। दीर्घ काल तक उपांशु जप के फलस्वरूप साधक मानस जप की काटि में पहुचता है। जिहृवा-कण्ठादि का कम्पन समाप्त हो जाता है, जप बराबर चला करता है, इस समय मन्त्र श्वासेच्छवास के साथ मिल जाता है और अन्तिम, मन्त्र की चरम सिद्वि में साधक मंत्र-मय देह वाला हो जाता है। जो अजपा की वाणी की सूक्ष्म दशा है, अपनी सूक्ष्मता की शक्ति से ‘‘अर्थवा‘‘ को परिवर्तित करने में पूर्ण सक्षम होती है। ध्येय मूर्ति(अर्थवा) का ही जो वाक् रूप-मन्त्र है, उसी मन्त्र की सिद्वि(अजपा-दशा) हमारे ‘‘अर्थवा‘‘ को परिवर्तित कर तद्-रूप करने में सक्षम होगी अतः ध्येय-‘अर्थवा‘ व वाक्-रूप(मन्त्र) भिन्न न होने पाये। कुण्डलिनी जागरण और अर्थवा वर्ण परिवर्तन दो भिन्न कार्य नही है, केवल शब्दो का फेर मात्र है। आत्म-साक्षात्कार के लिए मंत्रो द्वारा ही सबसे सरल व समर्थ मार्ग पाया गया है जिससे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया स्वतः हो जाती है, यही तन्त्र का मूल लक्ष्य है।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Wednesday 22 June 2016

सम्पुटित मंत्र की तीव्रता (कन्या विवाह हेतु)




स्वर्णाकर्षण भैरव - निराशा में आशा।


अपनी भगवती वगलामुखि की अंग विद्या है-स्वर्णाकर्षण भैरव। मेरे यजमान जो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है व सचिवालय में अच्छे उच्चाधिकारी है की पुत्री का विवाह नही हो पा रहा था, उम्र बढ़ती जा रही थी, वे काफी परेशान थे , उन्होने अपने कष्ट निवारण हेतु हमसे परामर्श किया। इस बार हमने भगवती की अंग विद्या के प्रयोग का मन में संकल्प किया।
इसमें हमें आशा से अधिक प्रसन्नता मिली। छह माह पश्चात् कन्या का विवाह काफी सम्पन्न परिवार में हो गया साथ ही चार माह उपरान्त कन्या को उच्च सरकारी नौकरी भी मिल गई। वह अपने परिवार में प्रसन्नता पूर्वक रह रही, उसके साथ सास-ससुर भी उसे काफी मानते है, सुन कर मुझे प्रसन्नता होती है कि माँ ने मेरी सुन ली, एक निराश परिवार को खुशी प्रदान कर दी। माँ से मेरा बारम्बार यही निवेदन रहता है ‘‘ हे भगवती ! मुझसे अच्छे कार्य ही कराना।’’
जिस प्रकार क्रिया की गई आप के सम्मुख प्रस्तुत है-

स्वर्णाकर्षण भैरव प्रयोग - कृष्ण पक्ष की अष्टमी से चतुर्दशी तक विशेष फलदायी होता है, इनके प्रयोग 9,18,27 व 36 दिनों में पूर्ण कर लेते है।

संकल्प- ऊँ तत्सद्य परमात्मन आज्ञया प्रवर्तमानस्य.............संवत्सरस्य  श्री श्वेत वाराह कल्पे जम्बूदीये भरत खण्डे, उत्तर प्रदेशे, लखनऊ नगरे...... निवासे....... मासे.......पक्षे...... तिथे....... गोत्रोत्पन्व (अपना नाम दे) अहं भगवत्या पीताम्बराया प्रसाद सिद्धी द्वारा मम यजमानस्य (यजमान के नाम,गोत्र व पते का उल्लेख करे) मम यजमानस्य घन-पद-यश सुखं-शान्ती प्राप्तार्थे च सन्तुष्टार्थे भगवती वगलामुखि शाबर मंत्र सम्पुटे स्वर्णा-कर्षण भैरव मंत्र एक आयुत ज्ये अहं कुर्बे।

विनियोग- ऊँ अस्य श्री स्वर्णा कर्षण भैरव मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः पक्तिश् छन्दः हरिहर ब्रह्मात्मक, स्वर्णाकर्षण भैरव देवता, हृ्रीं बीजम्, सः शक्ति, ओम कीलकं, मम दारिद्रय नाशर्थे स्वर्णा राशि प्राप्तार्थे, स्वर्णाा कर्षण भैरव प्रसनार्थे जाये विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास- ब्रह्म ऋष्ये नमः शिरसि। 
पन्तिश्छन्दसे नमः मुखे।
स्वर्णा कर्षण दैवताय नमः हृदि। 
ह्रीं बीजाय नमः गुहो।
सः शक्तिये नमः पादयोः। 
ओम कीलकाय नमः नाभौ। 
विनियोगाय नमः सर्वाङेग।

कराङग न्यास - 
ओम् ऐं ह्रीं श्री अपादु द्धारणाय अंगुष्ठाभ्यां नमः (हृदयाय नमः)
ओम् ह्रीं ह्रीं हूं अजामिल वद्धाय तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा)
ओम् लोकेश्वराय मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्)
ओम् स्वर्णा कर्षण भैरवाय अनामिकाभ्यां नमः। (कवचाय हुम्)
ओम् महा भैरवाय नमः श्रीं ह्रीं ऐ कर तल कर पृष्ठाभ्यां नमः (अस्त्राय फट्)

ध्यान:-
पीत वर्ण चतुर्वाहुं त्रिनेत्रं पीतवास सम्।
अक्ष्यं स्वर्णा माणिक्यं - तडित पूरित पात्रकम्।।
अभिलषितं महाशूल चामरं तोमरोद्वहम।
स्र्वाभरण सम्पन्नं मुक्ता हाराय शोभितम्।।
मदोन्मन्तं सुखासीनं भक्तानाम् च वर प्रदम्।
सततं चिन्तयेद् देवं भैरवं सर्व सिद्धिदम्।।
पारिजात द्रमुकान्तार स्थिते मणि मण्डये।
सिहासन गंत ध्यायेद भैरवं स्वर्णा दायकम्।।
गांगेय पात्रं डमरू त्रिशूलं वरं करैः संदघतं त्रिनेत्रं।
देव्या युतं तप्त स्वर्णावर्ण स्वर्णाकृतिः भैरव माश्रयामि।।

जप मंत्र:-
ऊँ ह्रीं बगलामुखि जगद् वंशकरी माँ बगले पीताम्बरे प्रसीद-प्रसीद मम सर्व मनोरथान पूरय पूरय ह्लीं ऊँ।
ऊँ ऐं क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं हूं सः वं आपदुद्धारणाय अजामिल व्द्धाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण भैरवाय मम दारिद्रय विद्वेषजाय ऊँ ह्रीं महा भैरवाय नमः।
ऊँ ह्लीं बगलामुखि जगद्शंकरी माँ बगले पीताम्बरे ................... ह्लीं ऊँ।

हवन:- पहले जगद्वशंकरी का 10 माला हवन करे फिर भैरव का 10 माला हवन करे पुनः जगद्वशंकरी का 10 माला हवन करें।

हवन सामग्री:-

1. स्वर्णाकषर्ण भैरव हवन सामग्री

शक्कर का बूरा - 1 किलो0 समिधा - बेल की लकड़ी
सफेद तिल - 1 किलो0 दीपक - सरसों का तेल
जौं - 500 ग्राम भोग - मीठा
चावल - 500 ग्राम
कमलवीज - 100 ग्राम
शहद - 500 ग्राम

2. जगदवशंकरी हवन सामग्री -

हल्दी समिधा - आम एवं नीम की लकड़ी
मालकागनी
सुनहरी हरताल
लौंग
पिसा नमक
काले तिल

(एक आयुत - दस हजार)
डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Wednesday 25 May 2016

मंत्र सिद्धी

माता बगलामुखि ज्ञान-विज्ञान की सीमा से परे, भाषा-जाति के बन्धन से मुक्त, ब्रह्माण्ड की ऐसी निरविशय, भूमा और महा विराट् चिन्मय शक्ति है, जो सदैव श्रद्धा-भक्ति और कर्म के वशीभूत होती है। इनके मंत्रों में अपार शक्ति छिपी है।

मंत्र सिद्धि के लिए शास्त्रों में दो उपक्रम दिए हैं :-
  1. मंत्र-संस्कार
  2. मंत्र-जप

मंत्र संस्कार :- दस होते हैं, इन संस्कारों के बिना मंत्र अपनी शक्ति और सामर्थ्य नहीं प्राप्त कर सकता।

1. जनन संस्कार :- भोजपत्र पर गोरोचन, हल्दी के रस या पीले चन्दन से मातृका योनि बनावे, फिर ईशान कोण से मातृका वर्ण लिख कर पूर्ण करे व इस अंकित भोजपत्र को पीठ पर स्थापित कर के आवाहन-स्थापन व पंचोपचार विधि से बगलामुखि देवी की पूजा-अर्चना करें, दीप इत्यादि जलाए फिर एक खाली भोजपत्र के चौकोर टुकड़े पर बगलामुखि मंत्र के एक-एक वर्ण को मातृका योनि से उतारे, ऐसा करने से जनन संस्कार होता है, फिर उस भोजपत्र से देख कर 1008 बार मंत्र जप करें बाद में पूजा घर में ऊँचा चिपका दें या पूर्वी दीवाल पर लटका दें जहाँ पूजा करते समय दृष्टि जाती रहे।

2. दीपन संस्कार :- ह्ंसः ऊँ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय् जिह्वां कीलय बुद्धि विनाशय ह्लीं ऊँ स्वाहा सोऽहम्। 1000 बार जपे यह मन्त्र को उद्दीप्त करता है।

3. बोघन संस्कार :- 5000 बार जपने से होता है। हुं ऊँ ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वा कीलय बुद्धि विनाशय हृं ऊँ स्वाहा हुं।

4. ताडन संस्कार :- मंत्र के आगे-पीछे फट् लगा कर 1000 बार जपे। फट् ऊँ ह्लीं बगलामुखि .............................. हृं ऊँ स्वाहा फट्।

5. अभिषेक संस्कार :-  हल्दी चन्दन से भोजपत्र पर मूलमंत्र को लिखें रां हं सः ऊँ व्याहतियो से गंगाजल को एक हजार बार अभिमंत्रित करें। उस जल को पीपल के पत्ते से, पीतल की थाली में रखे हुए (भोज पत्रांकित) मंत्र पर 36 बार डाले फिर मूल मंत्र को एक हजार बार जप करें।

6. विमली करण :- एक हजार बार निम्नमंत्र का जप करें-
ऊँ त्रों वषट् ऊँ ह्लीं बगलामुखि ........ ह्लीं ऊँ स्वाहा वषट् त्रों ऊँ।

7. जीवन संस्कार :- एक हजार बार जप करें-
स्वघा वषट् ऊँ ह्लीं बगलामुखि ............ ह्लीं ऊँ स्वाहा वषट् स्वघा।

8. तर्पण संस्कार :- दूध, घी व जल के मिश्रण से मूलमंत्र को जपते हुए कुश हाथ में लेकर देवतीर्थ से ‘‘तर्पयामि’’ लगा कर सौ बार तर्पण करें।

9. आप्यायन संस्कार :- ह्रौं बीज लगा कर मूलमंत्र को एक हजार बार जप करें व बीच में मंत्र वणों की संख्या के बराबर अर्थात् 36 बार आप्यायित नमः पद कहकर जल देने से यह संस्कार पूर्ण होता है।

10. गोपन संस्कार :- मूल मंत्र में ह्रीं लगाकर एक हजार बार जपे। इस संस्कार को जपने से पूर्व सदैव के लिए मंत्र को गुप्त रखने का संकल्प भी लेना होता है।

विशेष - इन दस संस्कार को करके, इन समस्त जपों के दशांश के बराबर हवन और उसके भी दशांश के बराबर मार्जन तथा उस मार्जन के दशांश के बराबर तर्पण तथा तर्पण के दशांश ब्रह्मण भोज कराया जाता है।
इस प्रक्रिया से साधक को मंत्र सिद्धि मिल जाती है, जो साधक को यथेष्ट फलदायी सिद्ध होती है।

हवन :- शुद्ध घी द्वारा करें।

मातृका योनि

भोजपत्र पर आत्म विमुख त्रिकोण बनाए, फिर उस त्रिकोण में छः-छः समान रेखाएं खींच कर 49 त्रिकोणों में विभक्त कर लेते हैं, इस प्रकार मातृका योनि बनती है। फिर उसमें ईशान कोण से मातृका वर्ण लिख कर पूर्ण करें।



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Tuesday 19 April 2016

दुष्ट तांत्रिक विधान को नष्ट करना-बगला सूक्त



मेरा यजमान एक सरकारी ड्राइवर है जिस पर कृत्या का इतना तीव्र प्रयोग किया गया कि वह घर में रह ही नहीं पाते थे, रात में भी घर न जाकर आफिस में ही सोते थे। चार-चार माह बीत जाते परन्तु वह घर जाने का नाम ही नहीं लेते यही नहीं तन्त्र द्वारा उन्हें पूर्णतः नपंुसक बना दिया गया, उनका सेक्स पूर्णतः नष्ट हो चुका था। सेक्स ठीक करवाने हेतु अनेको डाक्टरों की दवाइयों का सेवन किया, परन्तु कोई लाभ न हुआ, कई तांत्रिकों के चक्कर लगाए, एक तांत्रिक पर भैरव का आवेश आता था, रात-रात उसके वहाँ रहे, बड़े़-बडे़ वादे उस तांत्रिक ने किए पर समस्या जस की तस बनी रही। उनके तीन बेटियाँ विवाह के योग्य हो रही थीं, कैसे उनका विवाह करना है, कुछ भी विचार नहीं करते। कुल मिलाकर स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। अर्द्धविक्षिप्त अवस्था की ओर क्रमशः उनका जीवन जा रहा था, इसे हमें रोकना था और वह भी बिन पैसों के। एक तीव्र तांत्रिक से सीधी टक्कर लेनी थी। वह कहता था नौकरी पक्की नहीं होने दूंगा, हाथ में कटोरा पकड़वा दूंगा। इस तीव्र तांत्रिक के क्रिया कलाप को नष्ट करना कोई मजाक नहीं था। तीव्र पर तीव्रतर प्रयोग ही सफलता दे सकता अतः विचार किया क्यों न बगला-सूक्त के ग्यारह हजार पाठों का संकल्प लिया जाए और ऐसा ही किया गया। पाठ पूर्ण होने के बाद सब सामान्य हो गया। अब वह श्रीमान जी घर में रहने लगे, उनकी पत्नी भी उनके पैर दबाने लगी, जमीन का अच्छा मुवावजा भी मिल गया, अब वह करोड़पति बन गये, कुछ समयोपरान्त दो बेटियों का विवाह भी सम्पन्न हो गया। प्रत्येक बेटी के विवाह में चार पहिया गाड़ी देकर धूमधाम से कार्यक्रम सम्पन्न किया। कुछ कृषि योग्य जमीन भी खरीद ली परन्तु हमें एक बात का दुःख अवश्य हुआ कि गिरे वक्त पर मैंने निःशुल्क साथ दिया, भगवती से प्रार्थना कर उनके जीवन को खुशहाली के मार्ग पर लाने का प्रयत्न किया, जिसमें मैं सफल भी हुआ, अब प्रश्न है कि पारिश्रमिक के तौर पर हमें क्या मिला? बाबा जी का ठुल्लु। जिस प्रकार क्रिया की गई आप के सम्मुख प्रस्तुत है-

बगला सूक्त-कृत्या परिहणम् ‘‘अथर्वेद से’’

संकल्प - ऊँ तत्सद्य ................ प्रसाद सिद्धी द्वारा मम यजमानस्य (नाम दें) सर्वाभीष्ठ सिद्धिर्थे पर प्रयोग, पर मंत्र-तंत्र-यंत्र विनाशार्थे, सर्व दुष्ट ग्रहे बाधा निवाणार्थे, सर्व उपद्रव शमनार्थे श्री भगवती पीताम्बरायाः बगला सूक्तस्ये ग्यारह सहस्त्र पाठे अहम् कुर्वे। (जल पृथ्वी पर डाले दें)

सर्व प्रथम भगवती को मछली अर्पित कर पाठ करें व ग्यारह हजार पाठ के उपरान्त हवन कर भवगती को पुनः मछली भेंट करें।

मछली भेंट करना: - आटा गूँथे जिसमें काला तिल अधिक हो, इसकी मछली बनाकर, आंखों के स्थान पर एक-एक लौंग लगा कर इसकी प्राण प्रतिष्ठा करते हैं, फिर कड़े पर सरसों के तेल से जयोति उठा कर यह मछली भगवति को अर्पित कर बगला सूक्त का पाठ आरम्भ करें।

मछली की प्राण प्रतिष्ठा:- विनियोग - ऊँ अस्य प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रस्य ब्रह्मा, विष्णु, रूद्रा ऋषयः ऋग्य जुसामनिच्छन्दासि, पराऽऽख्या प्राण शक्ति देवता, आं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्रांे कीलकम् मछली प्राण प्रतिष्ठापने विनियोगः (जल भूमि पर डाल दें)

ऋष्यादि न्यास -

ऊँ अंगुष्ठयो।
ऊँ आं ह्रीं क्रौं अं कं खं गं घं ङं आँ ऊँ ह्रीं वाय वग्नि सलिल पृथ्वी स्वरूपाऽऽत्मनेडंग प्रत्यंगयौः तर्जन्येश्च।
ऊँ आं ह्रीं क्रौं इं चं छ जं झं ञं ई परमात्यपर सुगन्धाऽऽत्पने शिरसे स्वाहा मध्यमयोश्चं
ऊँ आं ह्रीं क्रौं डं टं ठं छं डं दं णं ऊँ क्षेत्र तव कचक्षु-जिव्हा घ्राणाऽऽत्मने शिखायै वषट् अनामिकयोश्च।
ऊँ आं ह्रीं क्रौं एं तं थं दं घं नं प्राणातमने कवचाय हुं कनिष्ठिकयोश्च।
ऊँ आं ह्रीं क्रौं पं फं वं भं मं वचना दान गमन विसर्गा नन्दाऽऽत्मने औं नेत्र त्रयाय वौषट्।
ऊँ आं ह्रीं क्रौं अं यं रं लं वं शं यं सं हं लं क्षं अः मनो बुद्धयं हंकार चित्राऽऽत्मने अस्त्राय फट्।

मछली को स्पर्श करते हुए यह मंत्र पढ़े:- ऊँ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हों हंसः मछली प्राणा इह प्राणाः। ऊँ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हों हंसः मछली जीव इह स्थितः। ऊँ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हों हंसः मछली सर्वेन्द्रियााणि इह स्थितानि। ऊँ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं संहों हंसः मछली वाङ मनश्च्क्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राणा इहागत्य संखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।

बगला सूक्त

यां ते चक्रु रामे पात्रे यां चक्रर्मिश्र घान्ये।
आमे मांसे कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!1!!
यां ते चक्रुः कृक वाकावजे वा यां कुरीरिणिं।
अव्यां ते कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!2!!
यां ते चक्रुः रेक शफे पशूना मृभयादति।
गर्दभे कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!3!!
यां ते चक्रुः रमूलायां वलगं वा नराच्याम्।
क्षेत्रे ते कृत्या मां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!4!!
यां ते चक्रुः र्गार्हपत्ये पूर्वाग्नावुत दुश्चितः।
शालायां कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!5!!
यां ते चक्रुः सभायां यां चक्रु रघिदेवने।
अक्षेषु कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!6!!
यां ते चक्रुः सेनायां यां चक्रु रिष्वायुघे।
दुन्दुभौ कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!7!!
यां ते कृत्यां कूपेऽवदघुः श्मशाने वा निचरन्तुः।
सद्यनि कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् !!8!!
यां ते चक्रुः पुरूषास्थे अग्नौ एंक सुके च याम्।
म्रोकं निर्दांह क्रव्यादं पुनः प्रति हरामि ताम् !!9!!
अपथेना जभारैणां तां पथेतः प्रहिण्मसि।
अघीरो मर्या घीरेभ्यः सं जभाराचित्या !!10!!
यश्चकार न शशाक कर्तु शश्रे पदामग्ङलिम्।
चकार भद्र मस्मभयम भगौ भगवद्भ्यः !!11!!
कृत्यां कृतं वलगिनं मूलिनं शपथेयऽम्।
इन्द्रस्तं हन्तु महता वघेनाग्नि र्विघ्यतवस्तया !!12!!

यह एक पाठ हुआ।

अर्थ:- 
अभिचार करने वाले ने अच्छे मिट्टी के पात्र में या घान, जौ गेंहू, उपवाक, तिल, कांगनी के मिश्रित घान्यों में अथवा कुक्कुटादि से कच्चे मांस में, हे कृत्ये! तुझे किया है। मैं तुझे उपचार करने वाले पर ही वापस भेजता हूँ !!1!! 

हे कृत्ये! तुझे मुर्गे, बकरे या पेड़ पर किया है, तो हम अभिचार करने वाले पर ही लौटाते हैं !!2!! 
हे कृत्ये! अभिचारकों ने तुझ एक खुर वाले अथवा दोनांे दाँत वाले गघे पर किया है तो तुझे अभिचारक पर ही लौटाते हैं !!3!! 

हे कृत्ये! यदि तुझे मनुष्यों से पूजित भक्ष्यं पदार्थ में ढक कर खेत में किया गया है तो तुझे अभिचारक पर ही लौटाते हैैं !!4!! 

हे कृत्ये! तुझे गार्हपत्याग्नि या यज्ञशाला में किया गया है, तो तुझे अभिचारक पर लौटाते है !!5!! 

हे कृत्ये! तुझे सभा में या जुएं के पाशों में किया गया है तो अभिचारक पर ही लौटाते हैं !!6!! 

सेना के बाण अथवा दुन्दुभि पर जिस कृत्या को किया है, उसे मैं अभिचारक पर ही लौटाता हूँ !!7!! 

जिस कृत्या को कुएं में डालकर, श्मशान में गाड़ कर अथवा घर में किया है, उसे मैं वापस करता हूँ !!8!! 

पुरुष की हड्डी पर या टिमटिमाती हुई अग्नि पर जिस कृत्या को किया है, उसे मांसभक्षी अभिचारक पर ही पुनः प्रेसित करता हूँ !!9!! 

जिस अज्ञानी ने कृत्या को कुमार्ग से हम मर्यादित लोगों पर भेजा है, हम उसे उसी मार्ग से उसकी (भेजने वाले की) ओर प्रेरित करते हैं !!10!! 

जो कृत्या द्वारा हमारी उंगली या पैर को नष्ट करना चाहता है, वह अपने इच्छित प्रयास में सफल न हो और हम भाग्यशालियों का वह अमंगल न कर सके !!11!! 

भेद रखने वाले तथा छिपकर (गुप्तरूप से) कृत्या कर्म करने वाले को, इन्द्र अपने विशाल शस्त्र से नष्ट कर दें, अग्नि उसे अपनी ज्वालाओं से जला डाले !!12!!

हवन:- प्रत्येक श्लोक के बाद स्वाहा लगा कर 108 या 11 पाठ की आहुति देते हैं।

हवन सामग्री:- पिसी हल्दी, पीली सरसों, सुनहरी हरताल, मालकांगनी, सफेद तिल, देशी घी में सानते हैं।
कृत्या निवारण - 11 हजार पाठों का विधान है।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह
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Monday 28 March 2016

श्री बगलामुखी कल्प विधान-गुप्त शत्रु मर्दनी

                अपनी शब्दावली भाव प्रणाली की विशिष्टिता के कारण इसे अत्यन्त विकट शत्रु से सन्त्रास को ध्वस्त करने के लिए किया जाता है। प्रस्तुत प्रयोग की फलश्रुति के अनुसार नित्य एक बार अथवा तीनों संन्ध्याओं में एक एक बार, एक मास तक पाठ से बगलामुखी देवी साधक के शत्रु को उद्घ्वस्त करती है:-

मास मेकं पठेन्नित्यं त्रैलोक्ये चाति दुर्लभम्।
सर्व सिद्धिम वाप्नोति देव्या लोकं गच्छति।।

                माँ की सिद्धि का सुगम उपाय है यदि इसका श्रृद्धायुक्त तीनों संघ्याओं में पाठ करने के उपरान्त रात्रि में तिल की खीर से नित्य भवगती को होम दें। एक मास तक यही प्रक्रिया करते रहें भवगती बगलामुखी साधक को बिना जप किए सब कुछ उपलब्ध करा देती है।
                सर्वप्रथम बगलामुखि के यंत्र का आगे दिए विधान द्वारा पूजन कर, स्त्रोत के पाठ से शत्रुओं का शमन होता है और वे आप के मार्ग से हट जाते हैं। ग्यारह सौ पाठ का विधान है एक सौ ग्यारह पाठ का हवन करते हैं।

हवन सामग्री:-  हल्दी, मालकाँगनी, तिल, बूरा, हरताल, घी में सान कर पाठ के प्रत्येक स्वाहा पर आहुति देते हैं। अन्तिम आहुति प्रत्येक पाठ के बाद खीर की देते हैं। इसका तर्पण-मार्जन नहीं होता है। खीर-दूध में तिल डाल कर टाइट खीर बनाते हैं बाद में उसमें केसर शहद भी मिला लेते हैं। स्वअनुभूति इस विधान को पूर्ण कर जब हवन की अन्तिम आहुति दी गई, षडयंत्रकारी को मार्ग से हटना ही पड़ गया, जब कि वह माँ दुर्गा का अच्छा साधक था, परन्तु षडयंत्र रचने में उसे महारत हासिल थी। किसी को ज्ञात भी नहीं होता था कि किसका षडयंत्र है, परन्तु भगवती की दृष्टि से वह माँ दुर्गा का सेवक छुप सका और माँ के दंड को उसे भुगतना ही पड़ गया। इसे नित्य की पूजा में सम्लित कर आप पूर्णतः निश्चिन्त हो जाएं। भगवती सदैव आप की रक्षा ही नहीं करेगी वरन् आप के गुप्त शत्रुओं को मार्ग से सदैव के लिए हटा देती है।
                पुस्तकों में लिखा है परन्तु मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं रहा कि यदि किसी मकान या दुकान को बांध दिया गया है तो उपरोक्त पाठ 108 बार पढ़ कर, जल पर फूकें। इस जल को घर या दुकान में प्रवेश करते समय अपने सिर पर से द्वार के बाहर की ओर फेंक दें। उसके बाद पुनः ग्यारह पाठ कर जल पर फूंके इस जल को घर/दुकान में सभी जगह छिड़क देने से वह स्थान जीवंत हो जाता है। दुकान चलने लगती है घर की समस्त बाधाएं शान्त हो जाती है।
                श्री बगलामुखी कल्प विधान देखने में बहुत बड़ा लगता है, परन्तु वास्तव में अत्यन्त आसान है। सर्व प्रथम भगवति से प्रार्थना करें माँ मैं आप के इस कल्प विधान को करना चाहता हूँ मुझे अनुमति प्रदान करें साथ ही मेरी मदद करे, आप को बता दूँ माँ इसे अत्यधिक सुगम तरीके से करा देगी कि आप को पता ही नहीं चलेगा। पाठ की कुछ कुन्जियाँ आप को देता हूँ, जिससे आप को भटकन नहीं होगी पहली कुन्जी है दिशा जैसे

ऊँ ऐं ह्लीं बगलामुखि एहि एहि पूर्व दिशा बन्धय बन्धय इन्द्रस्य मुखं
ऊँ ऐं ह्लीं पीताम्बरे एहि एहि अग्निदिशायाां - अग्नि मुखं



                इस चक्र को मस्तिष्क मैं बैठा ले किस दिशा पर किस शक्ति को पुकारते हैं और किस देवता का बन्ध करते हैं।

दूसरी कुंजी:-




तीसरी कुंजी - मानव आकृति मस्तिष्क में बैठा लें सर से ध्यान करे-

1. शिरो (सर) - बगलामुखि
2. भाले (मत्था) - पीताम्बरे
3. नेत्रो - महा भैरवि
4. कर्णो (कान) - विजये
5. नासौ (नाक) - जये
6. वदंन (चेहरा) - शारदे
7. कण्ठे (गला) - रूद्राणि
8. स्कन्धौ (कंधे) - विन्ध्यवासिनि
9. बाहू (हाथ) - त्रिपुर सुन्दरि
10. करौ (उगलियाँ) - दुर्गे
11. हृदयं - भवानि
12. उदरं (पेट) - भुवनेश्वरि
13. नाभिं - महामाये
14. कटिं (कमर) - कमल लोचने
15. उरौ (छाती) - तारे
16. सर्वाङ - महातारे
17. अग्रे (सामने) - योगिनि
18. पृष्ठे (पीछे) - कौमारि
19. दक्षिण पार्श्वे (दाई ओर) - शिवे
20. वाम पार्श्वे (बाई ओर) - इन्द्राणि

फिर गां गीं गू .....
                सभी में प्रारम्भ ऊँ ह्लां ह्लीं हलूं ह्लैं ह्लौं ह्लः लगा करे अंग का नाम रक्षतु देवी का नाम रक्ष रक्ष स्वाहा लगाते हुए क्रमशः बढ़ते रहे और अन्त  में  एक पाठ पूरा हो जाएगा जिह्वा धारावाहिक वाचिक चलती रहती है, आनन्द की अनुभूति क्रमशः चलते-चलते चरम पर पहुंच ही जाती है।

बगलामुखी कल्प विधान

                इसमें माँ बगलामुखी का सर्वांग पूजन आगे दी विधि के अनुसार करें। सर्वप्रथम 3 बार मूलमंत्र से प्राणायाम करें बाएं नथुने से धीरे-धीरे सांस खींच कर उसे तब तक रोके रहे जब तक छटपटाहट महसूस होने लगे फिर इसे दांए नथुने से धीरे-धीरे बाहर छोडे़ पुनः दांए से खींच कर बाए नथुने से सांस छोडें़ यह एक प्राणायाम हुआ, इस प्रकार तीन बार कर, मूल मंत्र का 108 बार जाप कर, दिग्बन्धन के समय सम्बन्धित दिशा में चुटकी बजाए-

दिग्बन्धन -

ऊँ ऐं ह्ल्रीं श्रीं श्यामा माँ। पूर्वतः पातु।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं आग्नेय्यां पातु तारिणी।।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं माहविद्या दक्षिणे तु।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं नैर्ऋत्यां षोडशी तथा।।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं भुवनेशी पिश्रिमायाम्।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं वायव्यां बगलमुखी।।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं उत्तरे छिन्नमस्ता च।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं ऐशान्यां धूमावती तथा।।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं ऊर्घ्व तु, कमला पातु।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं अन्तरिक्षं सर्वदेवता।।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं अद्यस्तात् चैव मातङगी।
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं सर्वदिग् बगलामुखी।।

विनियोगविनियोग बोल कर जल पृथ्वी पर डाले। दांए हाथ में जल लेकर
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं ब्रह्मास्त सिद्ध प्रयोग स्त्रोत मन्त्रस्य भगवान नारद ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, बगलामुखी देवता, हृं बीजम् शक्ति, लं कीलकं, मम सर्वार्थ-साधन-सिद्धयर्थे पाठे
विनियोमः। फिर सम्बन्धित स्थानो को छुए

                ऊँ भगवते नारदाय ऋषये नमः शिरसि
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः श्यामा देव्यै नमः ललाटे।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः तारा देव्यै नमः कर्णयोः।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः महा विद्यायै नमः भ्रवोर्मध्ये।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः षोडशी देव्यै नमः नेत्रयो।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः श्री बगला मुखी देव्यै नमः मुखे।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः बगला भुवनेश्वरी भ्यां नमः नासिकयोः।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः छिन्न मस्ता देव्यै नमः नाभौ।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः धूमावती देव्यै नमः कटयाम्।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः कमला देव्यै नमः गुहृो।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः श्री मातंगी देव्यै नमः पादयो।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः हृी बीजाय नमः नाभौ।
                ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः हृी कीलकाय नमः सर्वाङगे।
मम सर्वार्थ साधने बगला देव्यै जपे विनियोगः। (जल पृथ्वी पर डाल दे)

कर न्यास-
                ऊँ ह्लं बगलामुखी अड.गुष्ठाभ्यां नमः।
                ऊँ ह्लीं बगलामुखी तर्जनी भ्यां नमः।
                ऊँ ह्लूं बगलामुखी मध्यमा भ्यां नमः।
                ऊँ ह्लैं बगलामुखी अनामिका भ्यां नमः।
                ऊँ ह्लौं बगलामुखी कनिष्ठिका भ्यां नमः।
                ऊँ ह्लः बगलामुखी करतल कर पृष्ठा भ्यां नमः।

हृदयदि न्यास-
                ऊँ हृीं हृदयाय नमः। (हृदय को दांए हाथ से स्पर्श करें)
                बगलामुखी शिरसे स्वाहा।(सिर का स्पर्श करें)
                सर्व दुष्टानां शिखायै वषट्। (शिखा का स्पर्श करें)
                वाचं मुखं पदं स्तम्भय कवचाय हुम्। (कवच बनाएं
                जिह्वां कीलय् नेत्रयाय वौषट। (नेत्रों का स्पर्श करें)
                बुद्धि विनाशाय ऊँ ह्लीं स्वाहा (सिर के पीछे से, दाए हाथ से चुटकी बजाते हुए, दांए हाथ की गदेली पर, बांए हाथ की तर्जनी मध्यमा से तीन बार ताली बजाए।)
कवच - दांए हाथ की उंगलियाँ बाए कंधे पर रखे ठीक इसका उल्टा अर्थात् बांए हाथ की उगलियाँ दाहिने कंधे पर रखे, इस भांति सीने पर कवच की मुद्रा बनाते हैं।



ध्यान -

   सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशु कोल्लासिनीं
   हेमा भाङग रूचिं शशाङक मुकुटां सच्चम्पक स्त्रग्युताम्। 
   हस्तै र्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संविभ्रतीं भूषणैः। 
   र्व्याप्ताङगीं बगलामुखी त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तये।।

यन्त्रोद्वार -                          
                       त्रिकोणं चैव षट्-कोणं, वसु-पत्रं ततः परम्।
                        पुनश्च वसु-पत्रं, वर्तुलं प्रकल्पयेत्।।
                        षोडशारं ततः पश्चात्, चतुरस्त्रं विधीयते।
                        वर्तुलं चतुरस्तं , मध्ये मायां समालिखेत्।।   

नोट -      माँ बगलामुखी के उपरोक्त यन्त्रोंद्वार वाला ही यंत्र प्रयोग करें, बाजार में इनके विभिन्न प्रकार के यंत्र मिलते हैं। इसकी विधिवत् प्राण प्रतिष्ठा कर, सर्वांग पूजन करते हैं। पीले वस्त्र पर प्राण प्रतिष्ठित यंत्र स्थापित कर जहाँ-जहाँ पूजयामि है वहाँ-वहाँ पुष्प की पंखुडियाँ सामने प्लेट में डालते जाए तर्पयामि भी जल से करते रहें।

आदौ-त्रिकोण देवताः पूजयेत् -
ऊँ ऐं ह्री श्रीं क्रोधिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्री श्रीं स्तंभिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्री श्रीं चामर धारिण्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
पुनस्त्रि कोणे -
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ओडयान पीठाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं जालन्धर पीठाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं कामगिरि पीठाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं अनन्त नाथाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं श्री कण्ठ नाथाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं दन्तात्रेय नाथाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
अथ षट्कोणे -
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं सुभगायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भग वाहिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भग मालिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भग शुद्धायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भग पत्न्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
अथ वसुपत्रे -
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ब्राह्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं माहेश्वर्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं कौमार्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं वैष्णव्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं वाराहौै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं इन्द्राण्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं चामुण्डायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
अथ द्वितीय वसुपत्रे -
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं जयाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं विजयाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं अजिताय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं अपराजिताय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं जृम्भिण्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं स्तम्भिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं मोहिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं आकर्षिण्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
अथ पत्राग्रे-
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं असिताङग भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं रूरू भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं चण्ड भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क्रोध भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं उन्मन्त भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं कपालि भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भीषण भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं संहार भैरवाय स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
षोडश दले -
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं बगला मुख्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं स्तम्भिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं जृम्भिण्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं मोहिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं चच्चत्रायैै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं अचलायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं वश्यायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं कालिकायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं कल्मषायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं छात्रयै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं काल्पान्तायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं आकर्षिण्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं शाकिन्यै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट गन्धायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भोगेच्छायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।
ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं भाविकायै स्वाहा पूजयामि नमः तर्पयामि।

मन्त्र पाठ -108 बार पाठ कर, स्त्रोत का पाठ करें।

ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं बगला मुखि सर्व दुष्टानां वश्यं कुरू कुरू कलीं कलीं ह्रीं हुं फट् स्वाहा। ऊँ ह्लं बगलामुखि श्री बगलामुखि दुष्टान् भिन्धि भिन्धि, छिन्धि छिन्धि, पर मन्त्रान् निवारय निवारय, वीर चंक्र छेदय छेदय, वृहस्पति मुखं स्तम्भय स्तम्भय, ऊँ ह्रीं अरिष्ट स्तम्भनं कुरू कुरू स्वाहा, ऊँ ह्रीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा। (108 बार पाठ करें)

स्त्रोत्र -
ब्रह्मास्त्रां प्रवक्ष्यामि बगलां नारद सेविताम्।
देव गन्धर्व यक्षादि सेवित पाद पङकजाम्।।
त्रैलोक्य स्तम्भिनी विद्या सर्व शत्रु वशङकरी आकर्षणकरी उच्चाटनकरी विद्वेषणकरी जारणकरी मारणकरी जृम्भणकरी स्तम्भनकरी ब्रह्मास्त्रेण सर्व वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
ऊँ ह्लं द्राविणि द्राविणि भ्रामिणि भ्रामिणी एहि एहि सर्व भूतान् उच्चाटय उच्च्चाटय सर्व दुष्टान् निवारय निवारय भूत प्रेत-पिशाच-डाकिनी-शाकिनीः छिन्धि छिन्धि, खड्गेन भिन्धि भिन्धि मुद्गरेण संमारय संमारय, दुष्टान्, भक्षय-भक्षय, ससैन्यं भूपतिं कीलय मुख स्तम्भनं कुरू कुरू ऊँ ह्लां बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                आत्म-रक्षा ब्रह्म-रक्षा, विष्णु-रक्षा रूद्र-रक्षा, इन्द्र-रक्षा, अग्नि-रक्षा, यम-रक्षा, नैर्ऋत-रक्षा, वायु-रक्षा, कुवेर-रक्षा, ईशान-रक्षा, सर्व-रक्षा, भूत-प्रेत, पिशाच-डाकिनी-शाकिनी-रक्षा-अग्नि वैताल-रक्षा गण-गन्धर्व-रक्षा, तस्मात् सर्वरक्षां कुरू कुरू, व्याध्र-गज-सिंह रक्षा गण तस्कर-रक्षा, तस्मात् सर्व बन्ध्यामि ऊँ ह्लं बगलामुखि हुँ फट् स्वाहा।
                ऊँ ह्लीं भो बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊँ स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं बगलामुखि एहि-एहि पूर्व दिशायां बन्धय-बन्धय इन्द्रस्य मखं स्तम्भ-स्तम्भ इन्द्र शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं पीताम्बरे एहि-एहि अग्नि दिशायां बन्धय-बन्धय अग्नि मुखं स्तम्ीाय स्तम्भय अग्नि शस्त्र निवारय निवारय सर्व सैन्य कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं महर्षि मर्दिनि एहि-एहि अग्नि दिशायां बन्धय-बन्धय समस्य अग्नि स्तम्भय स्तम्भय यम शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्य कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं हज्जृम्भणं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं चण्डिके एहि-एहि नैऋत्य दिशायां बन्धय-बन्धय नैऋत्य मुखं स्तम्भय नैऋत्य शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्य कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं कराल नयने एहि-एहि पश्चिम दिशायां बन्धय-बन्धय वरूण मुखं स्तम्भय वरूण शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्य कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं कालिके एहि-एहि वायव्य दिशायां बन्धय-बन्धय वायु मुखं स्तम्भय वायु शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्य कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं महा त्रिपुर सुन्दरी एहि-एहि नैऋत्य दिशायां बन्धय-बन्धय कुवेर मुखं स्तम्भय कुबेर शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्य कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं महाभैरवि एहि एहि ईशान दिशायां बन्धय बन्धय ईशान मुखं स्तम्भय स्तम्भय ईशान शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं गाङगेश्वरि एहि एहि ऊर्ध्व दिशायां बन्धय बन्धय ब्रह्मणं चतुर्मखं स्तम्भय स्तम्भय ब्रह्म शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ललितादेवी एहि एहि अन्तरिक्ष दिशायां बन्धय बन्धय विष्णु मुखं स्तम्भय स्तम्भय विष्णु शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं चक्रधारिणि एहि एहि अधो दिशायां बन्धय बन्धय वासुकि मुखं स्तम्भय स्तम्भय वासुकि शास्त्रं निवारय निवारय सर्व सैन्यं कीलय कीलय पच पच मथ मथ मर्दय मर्दय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                दुष्ट मन्त्रम् दुष्ट यन्त्रं दुष्ट पुरूषम् बन्धयामि शिखां बन्ध ललाट बन्ध भ्रवौ बन्ध नेत्रे बन्ध कर्णों बन्ध नासौ बन्ध ओष्ठी बन्ध अधरौ बन्ध जिह्वां बन्ध रसनां बन्ध बुद्धि कष्ठम् बन्ध हृदयं बन्ध कुक्षि बन्ध हस्तौ बन्ध नाभि बन्धा लिङगम् बन्ध गुहां बन्ध ऊरू बन्ध जानू बन्ध जङघे बन्ध गुल्फौ बन्ध पादौ बन्ध स्वर्ग-मृत्युं-पातालं बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि इन्द्राय सुराधि पतये ऐरावत् वाहनाय श्वेत वर्णाय वज्र हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् निरासय निरासय विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि अग्नेय तेजोधिपतये छाग वाहनाय रक्त  वर्णाय शक्ति हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि यमाय प्रेताधिपतये महिष वाहनाय कृष्ण वर्णाय दण्ड हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि वरूणाय जलाधि पतये मकर वाहनाय श्वेत वर्णाय पाश हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि वायव्याय मृगवाहनाय ध्रूम वर्णाय ध्वजा हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि ईशानाय भूताधि पतये वृषभ वाहनाय कर्पूर वर्णाय त्रिशूल हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि ब्रह्मणे ऊर्ध्व दिग्लोकपालाधि पतये हंस वाहनाय श्वेत वर्णाय कमण्डलु हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ऐं ऊँ ह्लीं बगलामुखि वैष्णी सहिताय नागाधिपतये गरूण वाहनाय श्याम वर्णाय चक्र हस्ताय सपरिवाराय एहि एहि मम विघ्नान् विभज्जय विभज्जय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय ऊँ ह्लीं अमुकस्य मुखम् भेदय भेदय ऊँ हलीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ हलं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ नमो भगवते पुण्य पवित्रे स्वाहा।
                ऊँ ह्लीं बगलामुखि नित्यम् एहि एहि रवि मण्डल मध्याद् अवतर अवतर सानिध्यं कुरू कुरू। ऊँ ऐं परमेश्वरीम् आवाहयामि नम्। मम् सानिध्यं कुरू। ऊँ ह्लीं बगलामुखि हुम् फट् स्वाहा।
                ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः बगले चतुर्भुजे मुद्धरशर संयुक्ते दक्षिणे जिह्वा व्रज संयुक्ते वामे श्री महाविद्ये पीत बस्त्रे पच्च महाप्रेताधि रूढे सिद्ध विद्याधर बन्दिते ब्रह्म विष्णु रूद्र पूजिते आनन्द स्वरूपे विश्व सृष्टि स्वरूपे महा भैरव रूप धारिणि स्वर्ग मृत्यु पाताल सतम्भिनि वाम मार्गाश्रिते श्री बगले ब्रह्म विष्णु रूद्र रूप निर्मिते षोडशकला परिपूरिते दानाव रूप सहस्त्रादित्य शेभिते त्रिवर्णे एहि एहि हृदयं प्रवेशय प्रवेशय शत्रुमुखं स्तम्भ स्तम्भ अन्य भूत पिशाचान् खादय खादय अरिसैन्यं विदारय विदारय पर विद्यां परचक्रं छेदय छेदय वीर चक्रं धनुषां संभारय संभारय त्रिशूलेन् छिन्धि छिन्धि पाशेन बन्धय बन्धय भूपतिं वश्यं कुरू कुरू संमाहेय-संमोहय बिना जाप्येन सिद्धय सिद्धय बिना मन्त्रंण सिद्धिं कुरू कुरू सकल दुष्टान् घातय-घतय मम त्रैलोक्यं वश्यं कुरू-कुरू सकल कुल राक्षसान् दह दह पच पच मथ मथ हन हन मर्दय मर्दय मारय मारय भक्षय भक्षय मां रक्ष रक्ष विस्फाटका दीन् नाश्य नाशय ऊँ ह्रीं विषम ज्वरं नाशय-नाशय विषं निर्विष कुरू कुरू ऊँ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
                ऊँ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पंद स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धि विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहा।
                ऊँ बगलामुखि स्वाहा। ऊँ पीताम्बरे स्वाहा। ऊँ त्रिपुर भैरवि स्वाहा। ऊँ विजयायै स्वाहा। ऊँ जयायै स्वाहा। ऊँ शारदायै स्वाहा। ऊँ सुरेश्रर्ये स्वाहा। ऊँ रूद्राण्यै स्वाहा। ऊँ विन्घ्य वासिन्यै स्वाहा। ऊँ त्रिपुर सुन्दर्यै स्वाहा। ऊँ दुर्गाये स्वाहा। ऊँ भवान्यै स्वाहा। ऊँ भुवनेश्वर्यै स्वाहा। ऊँ महा मायायै स्वाहा। ऊँ कमल लोचनायै स्वाहा। ऊँ तारायै स्वाहा। ऊँ योगिन्यै स्वाहा। ऊँ कौमार्यै स्वाहा। ऊँ शिवायै स्वाहा। ऊँ इन्द्राण्यै स्वाहा। ऊँ ह्लीं बगलामुखि हं फट् स्वाहा।
                ऊँ क्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं विनाशय विनाशय क्लीं क्लीं ह्लीं स्वाहां
                ऊँ बगलामुखि स्वाहा। ऊँ पीताम्बरे स्वाहा। ऊँ त्रिपुर भैरवि स्वाहा। ऊँ विजयायै स्वाहा। ऊँ जयायै स्वाहा। ऊँ शारदायै स्वाहा। ऊँ सुरेश्रर्ये स्वाहा। ऊँ रूद्राण्यै स्वाहा। ऊँ विन्ध्य वासिन्यै स्वाहा। ऊँ त्रिपुर सुन्दर्यै स्वाहा। ऊँ दुर्गायै स्वाहा। ऊँ भवान्यै स्वाहा। ऊँ भुवनेश्वर्यै स्वाहा। ऊँ महा मायायै स्वाहा। ऊँ कमल लोचनायै स्वाहा। ऊँ तारायै स्वाहा। ऊँ योगिन्यै स्वाहा। ऊँ कौमार्यै स्वाहा। ऊँ शिवायै स्वाहा। ऊँ इन्द्राण्यै स्वाहा। ऊँ ह्लीं बगलामुखि हं फट् स्वाहा।
                ऊँ ह्लीं शिव तत्व व्यापिनि बगलामुखि स्वाहा। ऊँ ह्लीं माया तत्व-व्यापिनि बगलामुखि हृदयाय स्वाहा। ऊँ ह्लीं विद्या तत्व व्यापिनि बगलामुखि शिसे स्वाहा। ऊँ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः शिरो रक्षतु बगलामुखि रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः भालं रक्षतु पीताम्बरे रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः नेत्रे रक्षतु महा भैरवि रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः कर्णों रक्षतु विजये रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः नासौ रक्षतु जये रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः वदनं रक्षतु शारदे रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः स्कनधौ रक्षतु विन्घ्यं रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः बाहु रक्षतु त्रिपुर सुन्दरि रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः करौ रक्षतु दुर्गे रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः उदरं रक्षतु भुवनेश्वरि रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः नाभिं रक्षतु महामाये रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः कटिं रक्षतु कमल लोचने रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः उरौ रक्षतु तारे रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः संर्वाङगे रक्षतु महातारे रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः अग्रे रक्षतु येागिनि रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः पृष्ठे रक्षतु कौमारि रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः दक्षिण पार्श्वे रक्षतु शिवे रक्ष रक्ष स्वाहा।
ऊँ ह्लं ह्लीं ह्लू ह्लै ह्लौं ह्लः वाम पार्श्वे रक्षतु इन्द्राणि रक्ष रक्ष स्वाहा।
                ऊँ गां गीं गूं गैं गौं गः गणपतये सर्व जन मुख स्तम्भनाय आगच्डछ आगच्छ मम विध्नान् नाशय नाशय दुष्टं खादय खादय दुष्टस्य मुखं स्तम्भय स्तम्भय अकाल मृत्युं हन हन भो गणाधिपते ऊँ ह्लीं वश्यं कुरू कुरू ऊँ ह्लीं बगलामुखि हुं फट् स्वाहा।

हवन - जहाँ-जहाँ स्वाहा है आहुतियां देते रहें।

                एक हजार पाठ के उपरान्त यह पाठ स्वतः चलने लगता है, भगवती के यंत्र की पंचोपचार पूजन कर, रीढ़ की हड्डी सीधी कर बैठे अपनी त्रिकुटि के मध्य में ध्यान रखते हुए पाठ करें कैसा भी आप पर तांत्रिक प्रयोग किया गया हो उसको यह ध्वस्त कर देता है अभिचारिक व्यक्ति को दंड भी मिल जाता है। इस पाठ को आप अपनी दैनिक पूजा में यदि स्थान देते हैं तो भगवती आप की पूरी सुरक्षा ही नहीं करती वरन् बहुत कुछ दे देती है, जिसे स्वयं आप अनुभव करेंगे, धर्मता पूर्वक क्रमशः आगे बढ़ते रहें, भगवती आप की प्रत्येक मनोकामनाओं को पूर्ण करेगी। एक वर्ष में ही आप शक्ति सम्पन्न हो जाएगें। ऐसा अनुभवी साधकों ने स्वीकारा है।
(श्री बगलामुखि कल्पै वीर-तन्त्रे बगला-सिद्ध प्रयोग)

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह
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