Friday 20 January 2017

धनाभाव और माँ बगलामुखी

बात पाँच वर्ष पुरानी है, मैं अपने एक मित्र के यहाँ गया, उसके सेवा भाव से मन प्रसन्न हो गया, परन्तु मैंने एक बात नोट की यह सब दिखावा मात्र था, मैंने उसे कुरेदा तो उसकी बाते सुनकर मैं हैरान रह गया, वह अत्यधिक धनाभाव से संघर्ष कर रहा था, घर में एक ही समय चूल्हा जलता था, कुल मिलाकर अत्यन्त दयनीय स्थिति से जेसे तैसे गुजारा चल रहा था। घर आकर मैं सोचने लगा, क्या करूँ कि इसके जीवन में कुछ सुधार हो जाये, मैंने इसका नमक  खाया है - वासी रोटी व टमाटर की चटनी, हमने बड़े चाव से खाई थी, भूख में बहुत स्वाद इस भोजन में मुझे मिला। समय आ गया अब इसके नमक को व्यर्थ नहीं जाने दूंगा, भगवती से अवश्य प्रार्थना करूँगा और ऐसा ही हमने किया। एक वर्ष पश्चात् मैं पुनः इनके वहाँ गया, मैं देख कर दंग रह गया, इनकी यजमानी चल निकली थी, घर पर यजमानों की भीड़ लगी थी, टोकन बट रहा था, जिस नम्बर का टोकन वही यजमान इनसे मिल सकता था। भगवती से मैने इनके लिए कुछ माँगा था, भगवती ने बहुत कुछ दे दिया एक बार पुनः भगवती ने सिद्ध कर दिया सच्चे मन से कुछ मांग कर तो देखों बहुत कुछ अपने भक्तों को दे देती है, मेरा मन अत्यन्त गदगद हो गया, अपने पर नियंत्रण समाप्त हो गया - आँखों से अश्रुधारा स्वतः ही प्रवाहित हो चली।
जिस प्रकार की गई आप के सम्मुख प्रस्तुत है:-

जप - रूद्राक्ष की माला पर।
भोग - खीर जिसमें केशर मिला हो।
ध्यान - भगवती बगलामुखी स्वर्ण सिंहासन पर बैठी है और अपने दोनों हाथों से स्वर्ण मुद्राए बरसा रही है।
हवन सामग्री - सफेद तिल, हल्दी, हरताल, बूरा, जव, शहद, पंचमेवा, कमल गट्टे, माल कांगनी, गुगल, काले तिल, लौंग, छोटी इलायची, देशी घी।

संकल्प - ऊँ तत्सद्य परमात्मा आज्ञया प्रवर्तमानस्य 2073 संवत्सरस्य श्री श्वेत वाराह कल्पे जम्बूदीपे भरत खण्डे उत्तर प्रदेश, लखनऊ नगरे पुराना हैदराबाद निवासे ...... मासे, .......... पक्षे, .............. तिथे, ........... गोत्रोत्पन्न (अपना नाम) अहं भगवत्या पीताम्बरा प्रसाद सिद्धि द्वारा मम यजमानस्य .................. नाम ................. व्यवसाय वृद्धर्थे च स्थिर लक्ष्मी प्राप्ताथे मन्दार मंत्रस्य सम्पुटित रमा स्वरूपा श्री बगलया सट्ली दस सहस् जपे अहं कुर्वे।

मन्त्र - ‘‘श्री ह्रीं ऐं भगवति बगले तत्श्च विर्भूत साक्षात श्री रमा भगवत् परा रंजियंति दिशह् कान्तया विद्युत् सोदामनी यथा में श्रीयम् देहि देहि स्वाहा।

जप से पूर्व व बाद में क्रमशः 1-1 माला निम्न मंत्र का जप अवश्य कर दें -

‘‘ॐ ऐं बगलामुखि विद्महे ॐ क्लीं कान्तेश्वरि धीमहि ॐ सौः तन्नो प्रह्ल्रीं प्रचोदयात्’’



हवन के उपरान्त निम्न मन्त्र द्वारा 108 बार तर्पण करना है - दूध से श्रीं ह्रीं ऐं भगवति बगले तत्श्च विर्भूत साक्षात् श्री रमा भगवत प्ररा रंजियति दिशह् कान्तया विद्युत सोदामनी यथा में श्रीयम् देहि देहि स्वाहा तर्पयामी।

परिणाम - अति उत्तम आया। हमने पाया है उपरोक्त विधि द्वारा 36 हजार जप के पश्चात् निश्चित ही 99 प्रतिशत लाभ मिलता है।

नोट - चलते समय पंडित जी ने 36 हजार गुरू दक्षिणा स्वरूप मुद्राएं हमें यह कहते हुए भेंट की कि यह सब आप का ही दिया है, मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार करें, मन ही मन स्वतः प्रार्थना निकलती है ‘‘हे भगवती इन्हें कभी पराजय का मुुँह न देखना पड़े।

इस केस में पितर-दोष था अत पितरों की प्रसन्नता एवं तृप्ती हेतु इन्इें एक उपाय भी बताया कि सुबह पक्षियों को कुछ खिला दिया करें जैसे मीठा दें, पूड़ी या नमकीन दें, बिस्कुट आदि दे सकते हैं, साथ ही पक्षियों के पीने हेतु साफ पानी भी वहाँ रखना न भूलें, इस कार्य में अर्थाभाव आड़े नहीं आएगा।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Sunday 25 December 2016

भगवती पीताम्बरा के मंत्रों का प्रयोग

यह तो तय है मंत्रों में बहुत ही गजब की शक्ति समाई रहती है। उसका उचित ढंग से व आवश्यक रीति से जप किया जाये तो सुखद परिणाम प्राप्त होते हैं। सर्व प्रथम भवगती बगलामुखी के मूल मंत्र के 36 लाख जप आप पूर्ण कर चुके हैं। (योग्य गुरू के निर्देशानुसार एक वर्ष में ही आप 36 लाख जप पूर्ण कर लेंगे, जो भी हो, यह बात तो अनुभवी गुरूओं के आधीन है) तो कोई कारण नहीं कि आपको सफलता न मिले। कुछ गुप्त तथ्य आप के सम्मुख प्रस्तुत हैं:-

1. किसी कार्य के संकल्प हेतु पीली चुनरी व नारियल चढ़ा कर कार्य प्रारम्भ करें
2. गंगा के किनारे या कोई भी प्राचीन शिवाला या देवी का प्राचीन मंदिर हो वहाँ जप से शीघ्र ही सफलता मिल जाती है।
3. साधक लगातार जप से निपुण होता है।
4. अच्छे कार्यों से मंत्रों की शक्ति बढ़ती है।
5. किसी का भी हवन कर रहे हो तो हवन सामग्री में कुछ अंश अपना भी लगा दें।
6. जब भी प्रयोग करते है, 20 दिन बाद हवन करते रहे, यदि हवन होता रहता है तो शीघ्र सुखद परिणाम प्राप्त होता है।
7. कभी भी साधना को अधर में न छोड़े, परिणाम प्राप्त होने पर भी संकल्प पूर्ण करें।
8. जब कोई काम न बने तब ब्रम्हास्त्र बगला कवच ही फल जाता है। जब कोई शक्तिशाली चीज प्रहार करती है, तब यही कवच रक्षा करता है। पहले कवच का ग्यारह सौ पाठ कर सिद्ध कर लें। मरीज का हाथ छूते ही झुनझुनी सी मालूम होती है, समझ ले इस पर ऊपरी कोई बाधा है, अतः बगला गायत्री मंत्र मात्र सात बार पढ़ कर जल अभिमंत्रित कर, मरीज पर छीटा मारे, मरीज में आग सी लगती है वह चीखता है, चिल्लाता है। अब आगे जैसा आप चाहेंगे वैसा ही होगा।






ब्रम्हास्त्र बगला कवच


नोट:- पाठ से पूर्व बगला मूल मंत्र का 11 माला व बगला गायत्री का एक माला जप कर लें।

बगला में शिरः पातु ललाटं ब्रह्म संस्तुता।
बगला में भ्रवो नित्यं कर्णयोः क्लेश हारिणी।।
त्रिनेत्रा चक्षुषी पातु स्तम्भनी गण्डयो स्तथा।
मोहिनी नासिंका पातु, श्री देवी बगलामुखी।
ओष्ठयो र्दुर्घरा पातु स्र्वदन्तेषु चच्चला।
सिद्धान्न पूर्णा जिह्वायां जिह्वागे्र शारदाम्बिका।।
अकल्मषा मुखे पातु चिबुके बगलामुखी।
घीरा में कण्ठदेशे तु कण्ठाग्रे काल कर्षिणी।
शुद्ध स्वर्ण निभा पातु कण्ठ मध्ये तथाऽम्बिका।
कण्ठ मूले महाभोगा स्कन्धौ शत्रु विनासिनी।
भुजौ में पातु सततं बगला सुस्मिता परा।
बगला में सदा पातु कूर्परे कमलोभ्दवा।।
बगलाऽम्बा प्रकोष्ठौ तु मणि बन्धे महाबला।
बगला श्री र्हस्तयोश्च कुरू कुल्ला कराङगुलिम।।
नखेषु वज्रहस्ता च हृदये ब्रह्म वादिनी।
स्तनौ मे मन्द गमना कुक्षयो र्योगिनी तथा।।
उदरं बगला माता नाभिं ब्रह्मास्त्र देवता।
पुष्टिं मुदगर् हस्ता च पातुनो देव वंन्दिता।।
पाश्र्वयो र्हनुमद् वन्द्या प्शु पाश विमोचिनी।
करौ राम प्रिया पातु उरू युग्मं महेश्वरी।।
भगमाला तु, गह्मं में लिङग कामेश्वरी तथा।
लिंग मूले महाक्लिन्ना वृषणो पातु दूतिका।।
बगला जानुनी पातु जानुयुग्मं च नित्यशः।
जङघे पातु, जगद्धात्री गुल्फौ रावण पूजिता।।
चरणौ दुर्जया पातु पीताम्बा चरणाङ्गुली।
पाद पृष्ठं पद्यहस्ता पादाघ चक्र धारिणी।।
सर्वाङग बगला देवी पातु, श्री बगलामुखी।
वाराही मे पूर्वतः पातु, माहेशी बहिन भागतः।।
कौमारी दक्षिणो पातु, वैष्णवी स्वर्ग मार्गतः।
ऊघ्र्व पाशघरा पातु, शत्रु जिह्वा घरा ह्यघः।।
रणे राजकुले वादे महायोगे महाभये।
बगला भैरवी पातु नित्यं क्लींकार रूपिणी।।
इत्येवं वज्र कवचं महा ब्रह्मास्त्र संज्ञकम्।
त्रिसन्हयं यः पठेत् घीमान् सर्वैश्वर्य वाष्रुयात्।।
(दक्षिणामूर्ति संहिता उद्घृत)

क्रमशः

1. दक्षिण काली और भैरव का विधान किस प्रकार समाप्त करे।
2. जिन्न को कैसे नष्ट किया जाए।
3. गडन्त को कैसे नष्ट किया जाए।
4. कृत्या को कैसे समाप्त करें।
5. दुष्ट ब्रह्मराक्षस पर भगवती पीताम्बरा के मंत्रों का चमत्कार।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Saturday 5 November 2016

आईये मंगलमय प्रारब्ध का निर्माण करें

मनुष्य के कर्मो के अनुसार ही उसके प्रारब्ध का निमार्ण होता है, जिसे भुगतना ही पड़ता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने स्पष्ट कहा है, अनेको जन्मों के संचित कर्मो का परिणाम भुगतान ही पड़ता है। हम यह जानते है कि इस जन्म में जो कष्टकारी परिणाम मिल रहे  है वह हमारे द्वारा अनेकों जन्मों के कर्मो का संचित परिणाम ही तो है, न ही हमे वह योग्यता है कि अपने पिछले जन्मों के इतिहास को जान सके तथा उसमे सुधार कर सके
अब आते है जो हमारे जीवन के कष्टकारी दिन चल रहे है उन्हे कैसे सुधारा जाए़ हमारे पुरातन आचार्यो ने इसका निदान ढूढ़ निकाला था कि कैसे पुरातन प्रारब्ध को बदला जाए। वह था तंत्र विज्ञान ! तन्त्रं का मूल उद्देश्य है- आत्म साक्षत्कार व त्रय तापो से मुक्ति । आत्म साक्षात्कार के लिए मंत्रो द्वारा ही सबसे सरल व समर्थ मार्ग पाया गया है, जिससे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया स्वतः हो जाती है। तंत्र वस्तुतः एक साधना पद्वति है,तंत्र की व्यापक दृष्टि सर्वोपरि है, इसी कारण यह अन्य सभी धर्मो से विशिष्ट भी है। यह उम्र, वर्ग, जाति, स्थान, लिंग आदि का भेद नही करता। स्त्रियाँ भी उच्च कोटि की साधिकाए हुई है जैसे लोपामुद्रा, लोना चमारिन आदि, चुकि मनुष्य की प्रवृतियाँ भिन्न-भिन्न होती है अतः कुछ आचार यानी नियम भी बनाए गए है। तंत्र में सात आचार प्रमुख है -
वेदाचार, वैष्णवाचार , शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्वान्ताचार और कौलाचार ।
तंत्र विज्ञान में आने से पूर्व अपने धरातल को मजबूत कर ले, अपने ज्ञान को बढ़ाए, अधूरा ज्ञान कभी-कभी इस क्षेत्र में जानलेवा भी हो जाता है अतः क्रमशः धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे, शीघ्र सिद्वी प्राप्त करने की छटपटाहट का त्याग कर दे। छटपटाहट सफलता प्राप्त होने से रूकावट बनती है। तन्त्रोक्त साधना में अत्यन्त कठोर अनुशासन का विधान होता है, इसमें साधक की वास्तविक परीक्षा होती है। कहा गया है-जहाँ मद्य, मांस एवं मदारूण-लोचना तरूणियो का जमघट हो, वहाँ चित को एकाग्र एवं शान्त (अविकृत) रख सकना कठिन होता है। विकारोत्यादक एवं मोहक सामग्री के मध्य में स्थिर रह कर जिसका चित विचलित न हो, वही साधक देवी का सच्चा भक्त हो सकता है। इस प्रकार संयत चित साधक ही तन्त्रोक्त  साधना का अधिकारी होता है। किसी भी महाविद्या का श्रेष्ठ उपासक आवागमन के चक्र को अवरूद्व कर देने में सक्षम होता है क्योकि महाविद्याओ का ध्येय परमार्थं की प्राप्ति है, जो कि जीव का परम लक्ष्य है।
माँ पीताम्बरा के गायत्री मंत्र का दस लाख जप आप के पुरातन प्रारब्ध के ठीक करने के लिए पर्याप्त है।

संकल्प होगा-मम पुरातन परम अनिष्ठ बन्धन क्षयार्थे च नव मंगलमय प्रराब्ध निर्माणार्थे भगवती बगला गायत्री मंत्र- - - लाख जपे अहम् कुर्वे।

लगातार जप से आप की अर्थवा में परिवर्तन होने लगेगा और यही हमारा लक्ष्य है। अर्थवा में रंग परिवर्तन को भली भाति समझ ले तो आगे आप के जप में आसानी होगी। अर्थवा-प्रत्येक प्राणी के चारों ओर होता है जिसे अर्थवा (ओरा) कहते है, जिसे हम प्रयत्न कर बदल सकते है, प्रत्येक पदार्थ में अर्थवा होता है, यदि हम जड़ पदार्थ के अर्थवा के रंग द्वारा चैतन्य ‘अर्थवा‘ का रंग परिवर्तन करते है तो वह रंग अपने साथ जड़त्व को भी लायेगा अतः अत्याधिक रंग का उपयोग मानसिक जड़त्व लाएगा, जिससे मानसिक विकृतियाँ पैदा होगी अतः केवल जप समय ही इस जड़ पदार्थ के अर्थवा का प्रयोग मात्र सहायक के रूप में प्रयोग करते है जैसे मंत्र  जप की सूक्ष्म चैतन्य क्रिया की सफलता हेतु बाहरी वातावरण भी उसी रंग का रखते है जो हमारे ध्येय ‘अर्थवा‘ के अनुकूल हो।
वर्ण परिवर्तन के लिए आवश्यक है-
 1. ध्यान
 2. वाक्
 3. वातावरण।

1- ध्यान-  ध्यान का अर्थ है कल्पना नेत्रो से देखना, जिस भी वस्तु या आकार का हम ध्यान करते है उसे अपने कल्पना नेत्रों के द्वारा देखते है वास्तव में वह आकार मूल वस्तु का सू़क्ष्म रूप ही होता है। वस्तु का ’’अर्थवा’’ जिसे अग्रेजी में ’’ओरा’’ कहते है, जो प्रत्येक वस्तु के चारों ओर होता है जो वास्तव में उस वस्तु का सूक्ष्म शरीर होता है दूसरे शब्दों में हम ध्यान में जिस पदार्थ का ध्यान कर रहे है, उसके अर्थवा अर्थात उसके सूक्ष्म शरीर से, अपने सूक्ष्म (कल्पना,मस्तिष्क) का सम्बन्ध स्थापित करते है। अनन्य चिन्तन की अवस्था प्राप्त होते ही, हमारा ’’अर्थवा’’तद् रूप धारण कर लेता है। हमारे पुरातन आचार्य यह भली-भाँति जानते थे, ध्यान द्वारा जन साधारण पूर्ण तन्मयता नही प्राप्त कर सकते न ही अर्थवा में परिवर्तन कर सकते  अतः उन्होंने ध्यान के साथ वाणी (मंत्रो) का प्रयोग भी किया ।

2- वाक्- वाक् के द्वारा विशिष्ट मंत्रों की आवतियों के द्वारा ध्येय मूर्ति प्रत्यक्ष होती है। इसमें आवश्यक है ध्येय आकृति (अर्थवा) के अनुरूप ही ध्वनि तरंगो का उत्पादन किया जाय। ध्यान कुछ और मंत्र कुछ तो परिणाम शून्य ही रहता है। इसी लिए बार-बार कहते है मन को एकाग्र कर ध्यान पूर्वक जप करे। देखने में आता है जप कर रहे है और मन दुनियाँदारी के कार्यो की ओर सोचता रहता है तो सफलता कैसे मिलेगी। कहा गया है -

माला फेरत युग गया, गया न मन का फेर।
करका मनका डाल दे, मनका मन का फेर।।

जप संख्या पूर्ण हो जाती है, परन्तु कोई परिणाम सामने नही आता, तब मंत्रों को दोष देते है, ऐसा कदापि न करे। मन को एकाग्र कर ध्येय आकृति को अपने कल्पना नेत्रों से लगातार देखते हुए अनवरत मंत्र का जप करते रहे, जब आप के रोम-रोम से इष्ट मंत्र के जप का अनुभव होने लगे अर्थात् श्वासोच्छवास के साथ स्वमेव जप होने लगे, तब समझ ले- अब आप सफलता के निकट आ गए है। मंत्र जप की तीन दशाए होती है-
1. वाचिक,   2. उपांशु  3. मानसिक जप

वाचिक जप- जो वाणी द्वारा जप होता है। दीर्घकाल तक वाणी द्वारा जप करने से वह स्वभावतः उपांशु दशा को प्राप्त होता है।

उपांशु जप -इसमें केवल वागिन्द्रिय के कम्पन के साथ जप सम्पन्न होता है अर्थात् ध्वनि रहित जप।

मानसिक जप - दीर्घ काल तक उपांशु जप के फलस्वरूप स्वतः मानसिक जप होने लगता है। तब जिहवा कण्ठादि का कम्पन समाप्त हो जाता है जप बराबर चला करता है। इस समय मंत्र श्वासोच्छवास के साथ मिल जाता है और अन्तिम मंत्र की चमर सिद्धी में साधक मंत्र-मय देह वाला हो जाता है, यह अजपा की दशा वाणी की सूक्ष्म दशा है। अपनी सूक्ष्मता की शक्ति से ‘अर्थवा’ को परिवर्तित करने में पूर्ण सूक्ष्म होती है। ध्येय मूर्ति (अर्थवा) का वाक् रूप-मंत्र है उसी मंत्र की सिद्धी (अजपा-दशा) हमारे ‘‘अर्थवा’’ को परिवर्तित कर तद्रूप करने में सक्षम होगी। अतः ध्येय (अर्थवा) व वाक्-रुप मंत्र भिन्न न होने पाए। ‘अर्थवा वर्ण परिवर्तन’ और कुण्डलिनी जागरण दो अलग-अलग कार्य नहीं है। केवल शब्दों का फेर मात्र है। महाशक्ति कुण्डलिनी के प्रकाश का दूसरा नाम ही अर्थवा हैं वही माहा माया कुण्डलिनी जब अपनी पीताभा का प्रसार करती है तो सिद्ध-पीताम्बरा के नाम से अभिहित होती है।
अब बाकी शेष ही क्या रह जाता है। आप का प्रारब्ध स्वतः ही मंगलमय जीवन की ओर आपको ले जाएगा, जीवन कष्ट रहित हो जाता है, सारे शत्रुओं का उन्मूलन स्वमेव हो जाता है, माँ से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, यहाँ तक आप का बुरा सोचने वालों को इस दुनिया से जाना ही पड़ जाता है। एक बार प्रयास के बाद यदि मानसिक जप ठीक से नहीं चल पा रहा हो तो माँ से कातर प्रार्थना करो की वह आप के मानसिक जप को उचित ढंग से पूर्ण कराए, सदैव ध्यान रहे कि इस पुकार से पराम्बा शीघ्रतिशीघ्र द्रवित होती है, और आपका मानसिक जप स्वतः तीव्र गति से चलने लगेगा। हिम्मत न हारे, आगे बढ़े, सफलता तो आपको मिल कर रहेगी, नए प्रारब्ध का निर्माण होकर रहेगा, सदैव आशावान बने रहें, आप अकेले नहीं हो, हमारी भी शक्तियाँ आपके साथ है व स्वयं माँ भी तो आपके साथ हैं, थोड़ा परिश्रम कर लो, जीवन ही बदल जाएगा। मनुष्य जन्म लेने का उद्देश्य भी सफल हो जाएगा। इस आवागमन का चक्र भी अवरूद्ध हो जाएगा। कितना सीधा व सरल मार्ग है। बढ़ते रहो-बढ़ते रहो और आगे बढ़ते रहो, आपको मंजिल मिल कर रहेगी। सदैव ध्यान रहे आप का परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाएगा - यह मेरा वादा रहा।



नोट :- यह लेख केवल उनके लिए, जो परिश्रम करना चाहते हैं।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह
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Monday 17 October 2016

संतान प्राप्त हेतु - माँ बगलामुखी कृपा


एक महिला जिसकी उम्र 43 वर्ष, लंदन में रहती हैं, कोई संतान नहीं हुई, वह महिला डाक्टर है, परन्तु चिकित्सकों के अनुसार वह माँ नहीं बन सकती। जहाँ विज्ञान समाप्त हो जाता है, वहाँ से अध्यात्म का प्रारम्भ हो जाता है, ऐसा मैने सुना था, अब समय आ गया कि इसका परीक्षण भी कर लिया जाय। यह केस मेरे पास आया। सर्व प्रथम उस महिला के प्रारब्ध को ठीक करना था, तभी सफलता मिल सकती है, बुरे प्रारब्ध को ठीक करने की क्षमता भगवती पीताम्बरा के पास है यह मुझे भली-भांति ज्ञात है अतः बगला गायत्री का एक लाख जप का संकल्प लिया। बिना गायत्री संध्या के शिवा स्वरूपा भगवती पीताम्बरा बगला श्रेष्ठफल प्रदान नहीं करती। एक लाख जप पूर्ण करने के बाद ‘बगला हृदय मंत्र’ द्वारा यजमानस्या को संतान प्रप्ति हेतु प्रार्थना की गई। संख्यान तंत्र में स्पष्ट दिया है बन्ध्या पुत्रवती चैव, षण्मानसादि भवित घ्रुवम

परिणाम:- अति सुन्दर आया, मेरी यजमानस्या गर्भवती हुई, कुछ समयोपरान्त उसने जुड़ुवा पुत्रों को जन्म दिया। है न माँ की महिमा, मैं माँ का आभार मानते हुए उन्हें कोटिश-कोटि प्रणाम करता हूँ।
क्रिया जिस प्रकार की गई आप के समक्ष
श्री बगला गायत्री मंत्र विधि विधान के साथ प्रस्तुत है:-

मंत्र:- ‘‘ऊँ ह्लीं ब्रह्महस्त्राय विद्यहे स्तम्भन-वाणाय धीमहि तन्नः बगला प्रचोदयात्। (27 अक्षरी)

संकल्प:- ऊँ तत्सद्य परमात्मन ..... मम यजमानस्या पुरातन अनिष्ट प्रारब्ध नष्टार्थे च नव मंगलमय प्रारब्ध निर्माणार्थे श्री बगला गायत्री मंत्र एक लक्ष जपे अहं कुर्वे।

विनियोगः - ऊँ अस्य श्री बगला गायत्री मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्दः ब्रह्मास्त्र- बगला देवता, ऊँ बीजं, ह्लीं शक्तिः, विद्यहे कीलकं, श्री ब्रह्मास्त्र बगलाम्बा प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास:- 
श्री ब्रह्मार्षये नमः शिरसि, 
गायत्री छन्दसे नमः मुखे, 
श्री ब्रह्मास्त्र बगलाम्बा-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमःअंजलौ । 

कर न्यास:- 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्यहे अनुष्ठाभ्यां नमः, 
स्तम्भन वाणाय धीमहि तर्जनीभ्यां स्वाहा, 
तन्नो बगलाप्रचोदयात् मध्यमाभ्यां वषट्, 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्यहे अनामिकाभ्यां हुं, 
स्तम्भन वाणाय धीमहि कनिष्ठाभ्यां वौषट्, 
तन्नो बगला प्रचोदयात् कर तल-कर पृष्ठाभ्यां फट्।

अङग न्यास:- 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्ताय विद्यहे हृदयाय नमः, 
स्तम्भन वाणाय धीमहि शिरसे स्वाहा, 
तन्नों बगला प्रचोदयात्, शिखायै वषट्, 
ऊँ ह्लीं ब्रह्मास्ताय विद्यहे कवचाय हुं, 
स्तम्भन-वाणाय धीमहि नेत्र-त्रयाय वौषट्, 
तन्नो बगला प्रचोदयात अस्त्राय फट्।

ध्यान:- 


(प्रातः)

गम्भीरां च मदोन्मत्तां, स्वर्ण-कान्ति-सम-प्रभाम्।
चतुर्थजां त्रि-नयनां, कम लासन-संस्थिताम्।।
मुद्गर दंक्षिणें पाशं, वामे जिह्वां च विभ्रतीम।
पीताम्बर-धरां सौम्यां, दृढ़-पीन-पयोधराम्।।
हेम-कुण्डल-भूषाङगी, पीत-चन्द्रार्द्ध-शेखराम्।
पीत-भूषण-भूषाङगी, स्वर्ण-सिहासने स्थिताम्।।

(दोपहर) 

दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम्,
भूभृत्-सन्दमनं चलन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृश कारुण्य-पूर्वेक्षणम्,
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयंमातस्त्वदीयं वपुः 

(सायं)

मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय,
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि ! तीक्ष्ण-गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।

अब उपरोक्त 27 अक्षरी मंत्र का एक लाख जप करने के उपरान्त बगला हृदय मंत्र का एक लाख जप संकल्प कर किया गया।

श्री बगला हृदय मंत्र (80 अक्षरी) - सांख्यायन तन्त्र से लिया गया है।

|| आं ह्लीं क्रों ग्लौं हूं ऐं क्लीं श्रीं ह्रीं वगलामुखि आवेशय आवेशय आं ह्लीं क्रों ब्रह्मास्त्ररुपिणि एहि एहि आं ह्लीं क्रों मम हृदये आवाहय आवाहय सान्निध्यं कुरु कुरु आं ह्लीं क्रों ममैव हृदये चिरं तिष्ठ तिष्ठ आं ह्लीं क्रों हुं फट् स्वाहा ||

नोट: यह मंत्र बड़ा ही चमत्कारिक है। इसे सिद्ध कर, मात्र 3 बार अभिमंत्रित जल को पिलाने से रोगी रोग मुक्त हो जाता है।



डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह
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Monday 5 September 2016

माँ बगलामुखि मूल मंत्र द्वारा सम्पुटित माता धूमावती साधना की तीव्रता

मैं बड़ा परेशान रहता था, जमीन तो थी परन्तु पैसा नहीं था कि मकान बनवा सकू, कभी सोचता एक कमरा ही बन जाए परन्तु सोचने से कुछ नहीं होता। कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। लोग मेरी जमीन हड़पने का प्रयास भी करने लगे। कोई कहता यहाँ मकान बन ही नहीं सकता, कोर्ट से स्टे ले लूंगा, कोई कहता यहाँ पर नीम का पेड़ है जैसे ही कटेगा अन्दर करवा दूंगा, पैसा भी मेरे पास नहीं कैसे सबका सामना करूगा। मेरे प्लाट के मध्य में एक नीम का पेड़ लगा था। एक दिन उस पेड़ के नीचे खड़े होकर उससे उपरोक्त बाते करने लगा, उसने सुना या नहीं, यह तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु दूसरे ही दिन पेड़ की सारी पत्तियाँ गिरने लगी, मानो पतझड़ आ गया, अब वहाँ वृक्ष की मोटी-मोटी शाखाएं ही शेष रह गई। सोचने लगा कुछ तो है, पेड़ यो ही नहीं सूख गया, मन की स्थित शान्त नहीं थी, एक हफ्ते बाद मन में दृढ़ विश्वास किया कि अब हमें माता बगलामुखि के मूल मंत्र द्वारा सम्पुटित माता घूमावती मूल मंत्र का अनुष्ठान करना है, अतः एक लाख जप का संकल्प कर, जप प्रारम्भ कर निर्विघ्न पहला अनुष्ठान पूर्ण किया पुनः दूसरा एक लाख जप का अनुष्ठान करने से पूर्व एक बार घूवती गायत्री का अनुष्ठान कर लें, अतः घूमावती गायत्री का एक लाख जप का संकल्प कर जप समाप्त किया, तभी ज्ञात हुआ घूमावती जप 80 हजार पर एक सर्किल होता है अतः मैने साठ हजार जप और कर थकावट महसूस कर रहा था, तभी एक सज्जन मेरे पीछे पड़ गये कि मकान मैं बनवा दूंगा, कितना पैसा तुम्हारे पास है। मैने कहा मात्र एक लाख ही मेरे पास है - कहा बहुत है। दूसरे ही दिन मकान की नींव खुदने लगी। मैं चिन्तित था जग हँसाई होगी। एक लाख में तो एक कायदे का कमरा भी नहीं बन सकता, कार्य होता रहा। दवाखाने में प्रतिदिन कभी 4 हजार कभी 5 हजार मिलता रहा, अन्ततः तीन माह में तीन बड़े कमरे, किचन, बाथरूम, लैट्रीन, जीना व पूजाघर सभी बन गया। मैं बड़ा अचम्भित था, यह सब हो कैसे गया और आज तक भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा, यह सब कैसे हो गया। किसी भी विरोधी ने कोई विरोध करना तो दूर रहा, वहाँ आया तक नहीं। माँ की अजब कृपा हुई मैं भाव विभोर हूँ। आप को भी माँ की कृपा प्राप्त हो अतः जैसे मैने क्रिया की आप के सामने रख रहा हूँ, कृपया योग्य गुरू के मार्ग दर्शन से आगे बढ़े।
मन्त्र जप समय ध्यान बहुत महत्वपूर्ण होता है, बिना ध्यान में मंत्र जप निष्फल हो जाता है। मात्रा घूमावती का ध्यान है-कौवे की ध्वजा वाले रथ पर बैठी है, विधवाओं जैसे वेश है। खुले रूखे बाल है, बूढ़ी औरतों की तरह लटके स्तन है, दाएं हाथ में खाली सूप है व बाया हाथ वरद मुद्रा में उठा हुआ है। कल्पना करें - हमारे दुःख, दरिद्रता-कलह-क्लेश व बुरे प्रारब्ध को अपने साथ ले जा रही है और जाते समय अपने वरद हस्त से हमें आशीर्वाद दे रही है।
आवाह्न - कौवे के पंख पर सिन्दुर में घी लगा कर त्रिशुल की आकृति बनाकर, उसी पर इनका आवाह्न करते हैं जप के अन्त में जय माँ के बाए हाथ में समर्पित कर विसर्जन कर दें।
विसर्जन- हे माता पुनः आगमन हेतु अब आप प्रस्थान करें, जप वाद जब कपूर जलाए तब कपूर बुझने से पूर्व इनका विसर्जन कर देते हैं।
बगला मूलमंत्र संपुटित घूमावती साधना करने के पूर्व मेरे एक परिचित हैं, वह माँ घूमावती के अच्छे साधक है, उनसे विचार विमर्श किया, उन्होंने हमें बतलाया बगला और घूमावती में आपस में शत्रुता है, यदि तुम इनके साथ घूमावती का जप करोगे तो बगला तुरन्त तुम्हारी दुश्मन बन जायेगी। मैने इनकी बात सुन तो ली, परन्तु विरोध नहीं किया। मंथन किया जब बगला कल्प में ‘‘ ऊँ ऐं ह्लीं श्रीं घूमावती यथेशान्याम्’’ व ‘‘ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं  ह्रः घूमावती देव्यै नमः कटयाम्’’ इन दो स्थानों पर घूमावती को पुकारा गया है, तो इन दोनों में शत्रुता होने का प्रश्न ही नहीं उठता अतः संकल्प लिया -

मम पुरातन अनिष्ठ परम बन्धन विनाशार्थे च भगवति बगलामुखी व भगवती घूमावती प्रसन्नार्थे, भगवती बगलामुखी मूल मंत्र सम्पुटे, भगवती घूमावती मूल मंत्र एक लक्ष जपे अहं कुर्वे

संम्पुटित मंत्र
ऊँ ह्रीं बगलामुखि सर्व दुटानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ऊँ स्वाहा (1 माला)
धूं धूं धूमावती ठः ठः। (1 माला)
ऊँ  ह्रीं बगलामुखि सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा (1 माला)

यह एक मंत्र हुआ इसी का जप किया गया।

मंदिर में हवन

परिणाम - अति उत्तम व विस्मयकारी आया।

धूमावती गायत्री - घूमावत्यै च विद्यहे संहारिण्यै च धीमहि तन्नो घूमा प्रचोदयात्।

विनियोग - अस्य श्री घूमावती गायत्री मन्त्रस्य श्री घूमावती देवता वर प्रसाद सिद्धी द्वारा मम सर्वमनोभिलाष्टि कार्य सिद्धै जपे विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास -

पिप्पलाद ऋषये नमः शिरसि। 
निवृच्छन्दसे नमः मुखे। 
घूमावती देवतायै नमः हृदि। 

कर न्यास -

धूमावत्यै अनुष्ठाभ्यादि नमः। 
विद्यहे तर्जनीभ्यां नमः। 
संहारिण्यै मध्यमाभ्यां नमः। 
धीमहि अनामिकाभ्यां नमः। 
तन्नो घूमा कनिष्ठिकाभ्यां नमः। 
प्रचोदयात् कर तल कर पृष्ठाभ्यां नमः।

षडंग न्यास -

धूमावत्यै च ह्दयाय नमः। 
विद्यहे शिरसे स्वाहा। 
संहारिण्यै च शिखायै वषट्। 
धीमहि कवचाय हुं। 
तन्नो घूमा नेत्र त्रयाय वौष्ट्। 
प्रचोदयात् अस्त्राय फट्।

नोट - दीर्घ काल तक, निरन्तर प्रतिदिन सत्कार पूर्वक अभ्यास करने से साधना की भूमि दृढ़ होती है और तब कहीं उसका फल होता है। सतर्कता से इन्द्रिय-निग्रह-पूर्वक साधना-पथ पर अग्रसर होते हुए सफलता की प्राप्ति होने तक प्रयत्न पूर्वक रहना पड़ता है। पुरश्चरण पूर्ण होने तथा माँ की कृपा प्राप्त होने पर भी साधक को अपनी साधना की साध्य से जोड़ने वाली परम्परा को कभी शिथिल नहीं होने देना चाहिए-यही ‘‘ऊर्ध्वाम्नाय’’ की उच्च कोटि की साधना का गूढ़ रहस्य है।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Wednesday 24 August 2016

ध्यान



मंत्रो के पूर्व ’’ध्यान‘‘ लिखा रहता है, जिसे साधक एक बार पढ़ कर जप करने लगते है। लिखा भी रहता है ध्यान पूर्वक जप करे। अब प्रशन उठता है कैसे ध्यान पूर्वक जप करे, मूलतः ध्यान संस्कृत भाषा में लिखा रहता है अतः बहुधा साधक उसके अर्थ ही नही समझते फिर ध्यान करने का प्रश्न ही नही उठता।
बिना ध्यान के सिद्ध मंत्र भी गूंगा होता है उसमें मंत्र सिद्ध का कुछ भी प्रकाश नही रहता। ‘‘ध्यान‘‘ के अनुसार चिन्तन करते हुए मंत्र जप करते है। अभ्यास के दृढ़ होने पर ही निखिल पुरुषार्थ की सिद्धि होती है।
भगवती पीताम्बर का प्रमुख्य ध्यान है-

सौ वर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पितांशु कोल्लासिनी,
हेमा भगं रुचिं शशांक मुकुटां  सच्चम्पक स्रगयुताम्।
हस्तै मुद्गर-पाश-वज्र-रसनां संव्रिभ्रतीं भूषणैः,
व्र्याप्तागीं वगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनी चिन्तयेत्।।

इसका भावार्थ है-

सुवर्ण के आसन पर स्थित, तीन नेत्रोवाली, पीताम्बर से उल्लसित सुवर्ण की भांति कान्तिमय अंगांे वाली, जिनके मणि-मय मुकुट में चन्द्र चमक रहा है, कण्ठ में सुन्दर चम्पा पुष्य की माला शोभित है जो अपने चार हाथो में गदा(पाश), व्रज(शत्रु की जीभ) ग्रहण किये है, दिव्य आभूषणो से जिनका सारा शरीर भरा हुआ है,-ऐसी तीनों लोको का स्तम्भन करने वाली श्री वगलामुखी का मै चिन्तन करता हूँ।





ध्यान-

इस संसार में जो कुछ हम देखते है उसे आंख बन्द कर काल्पनिक दृष्टि से सभी देख सकते है जैसे मनुष्य का ध्यान करना है, तब हम मनुष्य आकृति की कल्पना आंख बन्द कर के कर सकते है ध्यानस्थ पदार्थ का रंग क्या है  वस्तुतः वह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले स्थूल रंग का सूक्ष्म रुप ही होता है। जिसे भी आकार को हम ध्यान में कल्पना नेत्रो से देखते है, वह आकार वस्तुतः सूक्ष्म ही होता है। वस्तु का ‘‘अथर्वा‘‘ जिसे अंग्रेजी में ‘‘ओरा‘‘ कहते है, जो प्रत्येक वस्तु के चारो ओर होता है। वास्तव में उस वस्तु का सूक्ष्म शरीर होता है, और ध्यान में हम वस्तु के सूक्ष्म रूप को ही प्रस्तुत करते है।
दूसरे शब्दों में ध्यान में जिस पदार्थ का ध्यान कर रहे है, उसके अर्थवा अर्थात सूक्ष्म शरीर से, अपने सूक्ष्म (कल्पना, मस्तिष्क) का सम्बन्ध स्थापित करते है। अनन्य चिन्तन की अवस्था प्राप्त हेाते है ही हमारा ‘‘अर्थवा‘‘तद् रूप धारण कर लेता है फलतः हम उन सब विशेषताओं से सम्पन्न हो जाते है जो उस ‘‘अर्थवा‘‘ एवं उसके वर्ण से सम्बन्धित है, परन्तु पुरातन ऋषि-मुनि यह जानते थे, यह दुःसाध्य कार्य है, जन साधारण ध्यान के द्वारा पूर्ण तन्मयता नही प्राप्त कर सकते न ही अर्थवा में परिवर्तन कर सकते है अतः उन्होने ध्यान के साथ वाणी (मंत्रो) का प्रयोग भी किया वाक् के द्वारा विशिष्ट मंत्र की आवृतियों के द्वारा ध्येय मूर्ति प्रत्यक्ष होती है। मंत्र जप से ‘‘अर्थवा‘‘ का परिवर्तन हो जाता है, जब शरीर के रोम रोम से इष्ट मंत्र के जप का अनवरत अनुभव होने लगना यानी श्वसोच्छवास के साथ स्वयमेव मन्त्र जप होने लगता है। मंत्र जप की तीन दशाए है। पहली दशा-वाचिक जप है जो वाणी द्वारा जप होता है। वाणी द्वारा दीर्घकाल तक जप करने पर पज स्वभावतः उपशु-दशा को प्राप्त होता है अर्थात् ध्वनि रहित, केवल स्थूल वागिन्द्रिय के कम्पन के साथ जप सम्पन्न होता है रहता है। दीर्घ काल तक उपांशु जप के फलस्वरूप साधक मानस जप की काटि में पहुचता है। जिहृवा-कण्ठादि का कम्पन समाप्त हो जाता है, जप बराबर चला करता है, इस समय मन्त्र श्वासेच्छवास के साथ मिल जाता है और अन्तिम, मन्त्र की चरम सिद्वि में साधक मंत्र-मय देह वाला हो जाता है। जो अजपा की वाणी की सूक्ष्म दशा है, अपनी सूक्ष्मता की शक्ति से ‘‘अर्थवा‘‘ को परिवर्तित करने में पूर्ण सक्षम होती है। ध्येय मूर्ति(अर्थवा) का ही जो वाक् रूप-मन्त्र है, उसी मन्त्र की सिद्वि(अजपा-दशा) हमारे ‘‘अर्थवा‘‘ को परिवर्तित कर तद्-रूप करने में सक्षम होगी अतः ध्येय-‘अर्थवा‘ व वाक्-रूप(मन्त्र) भिन्न न होने पाये। कुण्डलिनी जागरण और अर्थवा वर्ण परिवर्तन दो भिन्न कार्य नही है, केवल शब्दो का फेर मात्र है। आत्म-साक्षात्कार के लिए मंत्रो द्वारा ही सबसे सरल व समर्थ मार्ग पाया गया है जिससे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया स्वतः हो जाती है, यही तन्त्र का मूल लक्ष्य है।

डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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Wednesday 22 June 2016

सम्पुटित मंत्र की तीव्रता (कन्या विवाह हेतु)




स्वर्णाकर्षण भैरव - निराशा में आशा।


अपनी भगवती वगलामुखि की अंग विद्या है-स्वर्णाकर्षण भैरव। मेरे यजमान जो एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है व सचिवालय में अच्छे उच्चाधिकारी है की पुत्री का विवाह नही हो पा रहा था, उम्र बढ़ती जा रही थी, वे काफी परेशान थे , उन्होने अपने कष्ट निवारण हेतु हमसे परामर्श किया। इस बार हमने भगवती की अंग विद्या के प्रयोग का मन में संकल्प किया।
इसमें हमें आशा से अधिक प्रसन्नता मिली। छह माह पश्चात् कन्या का विवाह काफी सम्पन्न परिवार में हो गया साथ ही चार माह उपरान्त कन्या को उच्च सरकारी नौकरी भी मिल गई। वह अपने परिवार में प्रसन्नता पूर्वक रह रही, उसके साथ सास-ससुर भी उसे काफी मानते है, सुन कर मुझे प्रसन्नता होती है कि माँ ने मेरी सुन ली, एक निराश परिवार को खुशी प्रदान कर दी। माँ से मेरा बारम्बार यही निवेदन रहता है ‘‘ हे भगवती ! मुझसे अच्छे कार्य ही कराना।’’
जिस प्रकार क्रिया की गई आप के सम्मुख प्रस्तुत है-

स्वर्णाकर्षण भैरव प्रयोग - कृष्ण पक्ष की अष्टमी से चतुर्दशी तक विशेष फलदायी होता है, इनके प्रयोग 9,18,27 व 36 दिनों में पूर्ण कर लेते है।

संकल्प- ऊँ तत्सद्य परमात्मन आज्ञया प्रवर्तमानस्य.............संवत्सरस्य  श्री श्वेत वाराह कल्पे जम्बूदीये भरत खण्डे, उत्तर प्रदेशे, लखनऊ नगरे...... निवासे....... मासे.......पक्षे...... तिथे....... गोत्रोत्पन्व (अपना नाम दे) अहं भगवत्या पीताम्बराया प्रसाद सिद्धी द्वारा मम यजमानस्य (यजमान के नाम,गोत्र व पते का उल्लेख करे) मम यजमानस्य घन-पद-यश सुखं-शान्ती प्राप्तार्थे च सन्तुष्टार्थे भगवती वगलामुखि शाबर मंत्र सम्पुटे स्वर्णा-कर्षण भैरव मंत्र एक आयुत ज्ये अहं कुर्बे।

विनियोग- ऊँ अस्य श्री स्वर्णा कर्षण भैरव मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः पक्तिश् छन्दः हरिहर ब्रह्मात्मक, स्वर्णाकर्षण भैरव देवता, हृ्रीं बीजम्, सः शक्ति, ओम कीलकं, मम दारिद्रय नाशर्थे स्वर्णा राशि प्राप्तार्थे, स्वर्णाा कर्षण भैरव प्रसनार्थे जाये विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास- ब्रह्म ऋष्ये नमः शिरसि। 
पन्तिश्छन्दसे नमः मुखे।
स्वर्णा कर्षण दैवताय नमः हृदि। 
ह्रीं बीजाय नमः गुहो।
सः शक्तिये नमः पादयोः। 
ओम कीलकाय नमः नाभौ। 
विनियोगाय नमः सर्वाङेग।

कराङग न्यास - 
ओम् ऐं ह्रीं श्री अपादु द्धारणाय अंगुष्ठाभ्यां नमः (हृदयाय नमः)
ओम् ह्रीं ह्रीं हूं अजामिल वद्धाय तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा)
ओम् लोकेश्वराय मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्)
ओम् स्वर्णा कर्षण भैरवाय अनामिकाभ्यां नमः। (कवचाय हुम्)
ओम् महा भैरवाय नमः श्रीं ह्रीं ऐ कर तल कर पृष्ठाभ्यां नमः (अस्त्राय फट्)

ध्यान:-
पीत वर्ण चतुर्वाहुं त्रिनेत्रं पीतवास सम्।
अक्ष्यं स्वर्णा माणिक्यं - तडित पूरित पात्रकम्।।
अभिलषितं महाशूल चामरं तोमरोद्वहम।
स्र्वाभरण सम्पन्नं मुक्ता हाराय शोभितम्।।
मदोन्मन्तं सुखासीनं भक्तानाम् च वर प्रदम्।
सततं चिन्तयेद् देवं भैरवं सर्व सिद्धिदम्।।
पारिजात द्रमुकान्तार स्थिते मणि मण्डये।
सिहासन गंत ध्यायेद भैरवं स्वर्णा दायकम्।।
गांगेय पात्रं डमरू त्रिशूलं वरं करैः संदघतं त्रिनेत्रं।
देव्या युतं तप्त स्वर्णावर्ण स्वर्णाकृतिः भैरव माश्रयामि।।

जप मंत्र:-
ऊँ ह्रीं बगलामुखि जगद् वंशकरी माँ बगले पीताम्बरे प्रसीद-प्रसीद मम सर्व मनोरथान पूरय पूरय ह्लीं ऊँ।
ऊँ ऐं क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं हूं सः वं आपदुद्धारणाय अजामिल व्द्धाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण भैरवाय मम दारिद्रय विद्वेषजाय ऊँ ह्रीं महा भैरवाय नमः।
ऊँ ह्लीं बगलामुखि जगद्शंकरी माँ बगले पीताम्बरे ................... ह्लीं ऊँ।

हवन:- पहले जगद्वशंकरी का 10 माला हवन करे फिर भैरव का 10 माला हवन करे पुनः जगद्वशंकरी का 10 माला हवन करें।

हवन सामग्री:-

1. स्वर्णाकषर्ण भैरव हवन सामग्री

शक्कर का बूरा - 1 किलो0 समिधा - बेल की लकड़ी
सफेद तिल - 1 किलो0 दीपक - सरसों का तेल
जौं - 500 ग्राम भोग - मीठा
चावल - 500 ग्राम
कमलवीज - 100 ग्राम
शहद - 500 ग्राम

2. जगदवशंकरी हवन सामग्री -

हल्दी समिधा - आम एवं नीम की लकड़ी
मालकागनी
सुनहरी हरताल
लौंग
पिसा नमक
काले तिल

(एक आयुत - दस हजार)
डा0 तपेश्वरी दयाल सिंह

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